- अगर हर संपन्न व्यक्ति सोच ले कि वह एक गरीब घर को रोशन करेगा तभी दीपावली सकारात्मक होगी
जौनपुर। रोशनी का पर्व दीवाली हर किसी की हैं, छोटा बड़ा हर कोई अपनी हैसियत के हिसाब से खुशियां मनाने के लिए दिये और मिठाई का बंदोबस्त करता है। हमारे देश का एक बड़ा वर्ग दीपावली के दिन भी रोज की तरह दो रोटी के जुगाड़ पर निकल पड़ता हैं। वह वर्ग कबाड़ बिनने वाले कबाड़ी, भिखारी और यह तो त्योहार के दिन इस उम्मीद से निकलते है कि आज उनकी किस्मत में कुछ ज्यादा मिल सकता है।
जैसे कबाड़ी इस उम्मीद से हर कबाड़ को उठाकर तस्सली से देखता है कि कही यह मेरे काम तो नहीं वह हमारी घर से फेकी गई रदृदी को भी बड़े संभाल कर अपनी पोटली में रखता हैं। आखिर रखे भी क्यों नहीं दीपावली के दिन जो उसे अपने घर रोशनी करनी है। इसलिए कम से कम जब हम त्योहार पर अपने घर की रददी और कबाड़ निकाले तो उसे अलग—अलग करके सलीखे से रखे, उसके बीच में गंदगी न डाले, ताकि उसे उठाने वाले जब उठाकर देखें तो अपमानित न महसूस करें।
रदृदी में खुशी खोजते देखी
वैसे तो हर सुबह मेरी नींद अधिकांश कबाड़ खरीदने वालों की आवाज से ही खुल रही है, क्योंकि त्योहार पर इन्हें ज्यादा कबाड़ मिलने की उम्मीद होती हैं, लेकिन आज उनकी आवाज नहीं जब मैं छत पर गया तो हमारे घर के पीछे खाली पड़े प्लाट में एक कबाड़ बीनने वाले 10 से12 बच्चे को कबाड़ और रदृदी चुनते हुए देखा, वह हमारे घरों से फेंके गए रददी को बड़े सलीके से अपनी पोटली में रखते हुए दिखा, जिसे देखकर मन बहुत द्रवित हुआ, पूछन पर बोला— आज अगर कबाड़ नहीं बिनेंगे तो खाएंगे क्या
खाएंगे क्या
हमारे समाज के बड़े वर्ग के सामने रोज बड़ा प्रश्न खड़ा होता है कि आज काम नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या, जहां एक तरफ एक वर्ग करोड़ों रुपये के पटाखे दीपावली पर सगून के नाम फोड़ देते है,वहीं दूसरी तरफ मध्यम वर्ग किसी तरह आधे किलो का डिब्बा ला पाता है और निम्न वर्ग तो केवल सपने देखता रहता है, कही से कुछ मिल जाए। इसके विपरित हमारे समाज में बहुत से धनाढ्य और एनजीओ के लोग अखबारों और सोशल मीडिया में दिखावे के लिए कुछ बांटते जरूर है, लेकिन उनका मकसद बांटने से ज्यादा दिखावा होता हैं, अगर हर संपन्न व्यक्ति यह प्रण ले कि वह एक गरीब के घर को रोशन करेगा तभी सच्चे अर्थों में हर घर में दीपावली मन पाएगी।
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