कृषि कानून: संसद से जीती सड़क

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लखनऊ। लोकतंत्र की पवित्र मंदिर है संसद, लेकिन इस मंदिर की मूरतों (सांसदों) को भगवान/ख़ुदा बनाने वाली आम जनता इन ख़ुदाओं से भी बड़ी है। संसद के फैसले जब आम इंसानों, किसानों, मज़दूरों को ही नाराज़ करने लगते हैं तो नाराज़ सड़क पर उतरी जनता संसद को भी झुका देती है। इतिहास गवाह है कि सड़कों पर आमजन/मजदूर-किसान के आंदोलन सरकार और उसकी ताकत को झुकने पर मजबूर करती रही हैं। लोकतंत्र की यही ताक़त है कि आर्थिक रूप से कमजोर किसान-मज़दूर भी बलशाली होता है। किसान जिस फसल को उगाता है उस फसल में ही कीटपतंगों लग जाएं तो उन्हें मारने और खरपतवार को उखाड़ने का भी तरीका जानता है। जिस संसद में जनता सांसद के रूप में अपने प्रतिनिधि भेजती है और जब आवाम के नुमाइंदे ही आवाम की मर्जी के खिलाफ फैसले करने लगें तो सड़क पर उतरे जनसैलाब के आगे संसद बौनी पड़ जाती है।
कृषि क़ानूनों को लेकर मोदी सरकार का बैकफुट पर आना ये दर्शाता है कि सड़क का संसद से ज्यादा महत्व है। संसद में पास होने के बाद कृषि कानूनों के विरोध में सड़क पर बैठे किसानों से प्रधानमंत्री ने देश और देश के किसानों से कहा कि सरकार तीनों कृषि कानूनों को वापस लेगी। गौरतलब है कि सरकार ने उन्हीं कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान हुआ है जिन्हें किसानों का हितकारी बताया जा रहा था। प्रधानमंत्री और भाजपा सरकार के तमाम मंत्री कह रहे थे कि कृषि और किसानों के लाभकारी इन कानूनों को किसानों का समर्थन प्राप्त है। खासकर देश के अस्सी-नब्बे फीसद छोटे किसानों के फायदे के लिए ये कानून लागू होंगे। छोटे किसानों की तरक्की के लिए बनाए गए इन कानूनों को चंद धनशाली बड़े किसान ही विरोध कर रहे हैं। कुछ भाजपा समर्थकों ने तो किसान आंदोलनकारियों को विपक्ष की कठपुतलियां कहा। सड़कों पर उतरे किसानों पर धरना-प्रदर्शन नक्सलवादी, आतंकवादी, खालिस्तानी और विदेशी वित्तपोषित जैसी तोहमतें भी लगती रहीं।
इस बात में कोई दो राय नहीं की प्रचंड बहुमत की भाजपा की केंद्र सरकार बेहद शक्तिशाली है। इस सरकार ने संसद में जो कई महत्त्वपूर्ण क़ानून पास करवाए उनमें तीन कृषि कानून थे। देश के किसानों का एक तबक़ा इन कृषि कानूनों को कुछ कारपोरेट घरानों (उद्योगपतियों/पूंजीपतियो) के हित और किसानों के अनहित में बता कर आन्दोलन पर उतरा। नाराज़ किसानों का कहना था कि कृषि कानून बनाने से पहले किसानों से परामर्श तक नहीं किया गया‌। सरकार ने कृषक संगठनों  से इस संबंध में न कोई बात की और ना ही उनकी राय ली गई। क़रीब एक वर्ष से चलता रहा ये आंदोलन तमाम किसानों की ज़िन्दगियां लील गया। झड़पें और वारदातें हुईं, किसानों की जाने गईं। लखीमपुर की ह्दयविदारक घटना नें देश की जनता का दिल दहला दिया।
जान का ही नहीं माल का भी नुक्सान हुआ। सैकड़ों कृषकों के खिलाफ मुकदमें लिखे गए। संघर्षों में आम जनता और सुरक्षाबलों को भी नुक्सान पंहुचा। दुनियां में बदनामी हुई।
ख़ैर अब प्रधानमंत्री मोदी ने विवादित कृषि कानूनों को वापस किए जाने का एलान कर एक बड़ा फैसला किया है। इस फैसले को लेकर किसानों आगे क्या फैसला करेंगे ! मोदी सरकार के प्रति किसानों की नाराज़गी दूर होगी या नहीं, अथवा अभी कोई और पेंच फंसेगा ? यूपी और पंजाब सहित अन्य प्रदेशों में चंद माह बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में कृषि कानून वापसी का क्या असर होगा ये सब तो वक्त बताएगा, लेकिन ये बात साबित हो गई है कि शक्तिशाली मोदी सरकार किसान आंदोलनकारियों के आगे झुकी है। या ये भी कहा जा सकता है कि सरकार ने दरियादिली दिखाई हैऔर अपने कोमल ह्रदय व नर्म रुख़ का परिचय दिया है।
एक बात ये भी साबित हो गई है कि राकेश टिकैत देश के तमाम किसान नेताओं/संगठनों को एकजुट कर बतौर सशक्त किसान नेता अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत की  विरासत संभालने में सक्षम हैं।
– नवेद शिकोह

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