नवेद शिकोह, लखनऊ। यूपी की सियासत की सबसे बड़ी खबर इंटर्नल है। तमाम एक्सटर्नल खबरों के पीछे एक बड़ी इंटर्नल खबर छिपी है। वो ये कि बसपा और सपा में घनासान मचा है। जो दिखाई नहीं दे रहा है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव बसपा सुप्रीमों को लेकर नर्म रहकर धीरे-धीरे मीठी छुरी चलाते हुए दलित वोटों में सेंधमारी की तैयारी कर रहे थे। बसपा के विधायकों से रिश्ता कायम कर रहे थे। मुस्लिम मामलों और हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति से दूर रहे। मायावती अपनी परिपक्व राजनीति क्षमताओं से जबरदस्ती इसी दलदल में सपा अध्यक्ष को घसीट रही हैं।
अखिलेश को लग रहा था कि यूपी के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस मुख्य मुकाबले से बाहर होगी और बसपा की भाजपा से अप्रत्यक्ष दोस्ती जगजाहिर है इसलिए पश्चिम बंगाल की तर्ज पर भाजपा विरोधी वोट एकजुट होकर सपा की ताकत बनेंगे।
अखिलेश यादव ने ये भी परिपक्व नीति अपनाई थी कि वो भाजपा के हिंदू-मुस्लिम जाल से बचने के लिए इन मामलों पर खामोश रहेंगे। ताकि वो मुस्लिम तुष्टिकरण और हिन्दुत्व विरोध आरोपों से बचे रहें और भाजपा से नाराज गैर मुस्लिम जनाधार पर सपा का एकक्षत्र राज हो जाए। और मुस्लिम समाज तो भाजपा से सीधा मुकाबला कर रहे दल के साथ आता है इसलिए मुस्लिम बिरादरी तो बिना बंटे एकजुट होकर सपा के पाले में आ ही जाएंगे।
इन सारी प्लानिंग और खुशफहमियों के रंग में भंग डालते हुए मायावती ने भाजपा के खिलाफ बयान देकर मुस्लिम समाज को अपने विश्वास से जोड़ने की कोशिश करना शुरू कर दी। इस तरह उन्होंने एक तीर से दूसरा शिकार करते हुए अखिलेश यादव को ही मुस्लिम परस्ती की छाप वाले बयान देने पर मजबूर होना पड़ा। मसलन मायावती ने लखनऊ में कथित आतंकियों की गिरफ्तारी पर योगी सरकार की नियत और इरादों पर शंका व्यक्त की तो वो अखिलेश यादव जो इस तरह के बयानों से परहेज कर रहे थे पर मजबूरी में कथित आतंकियों की गिरफ्तारी पर उनको योगी की पुलिस पर शंका जाहिर करने वाला बयान देना पड़ा। इसी तरह यूपी में योगी सरकार के खिलाफ सपा के प्रदर्शन में आजम खान की रिहाई भी एक मुद्दा बनी।
बताते चलें कि बसपा सुप्रीमों ने अपनी खामोशी और भाजपा से कूल रिश्ते को विपरित दिशा मे लाने के साथ हाशिए से बाहर निकलकर आगामी विधानसभा चुनाव के मुकाबले मे आने की तैयारी शुरू कर दी। साढ़े चार साल तक कई मामलों में भाजपा का समर्थन और सहयोग करने वाली बसपा ने करीब दो सप्ताह पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत के हिन्दू-मुसलमानों का डीएनए एक है, वाले बयान पर तंज़ कसा। फिर योगी सरकार द्वारा धर्मांतरण के खिलाफ उठाए जा रहे कदम का विरोध किया। जनसंख्या नियंत्रण बिल की चर्चा पर भी बसपा का रुख नकारात्मक रहा। ये वही बसपा है जिसने राज्यसभा और विधानसभा चुनाव में भाजपा का साथ दिया था। मुस्लिम समाज के समर्थन का मोह त्याग कर सीएए, एन आरसी, धारा 370, तीन तलाक.. इत्यादि का स्वागत किया था। शायद इसी लिए आगामी विधानसभा चुनाव में लगने लगा कांग्रेस का फिलहार बड़ा जनाधार नहीं इसलिए पश्चिम बंगाल की तर्ज पर सपा को एकतरफा मुस्लिम वोट और तमाम भाजपा विरोधियों का समर्थन मिल सकता है। बस इसी धारणा को तोड़ने के लाए बसपा ने भी विपक्षी तेवरों मे आकर भाजपा पर हमलावर होने की चाल चलनी पड़ी।
मायावती का भले ही उनका सियासी वक्त गर्दिश मे हो पर आज की तारीख में यूपी की सक्रिय सबसे परिपक्व पॉलिटिशियन मायावती ही हैं। सपा का गेम प्लान समझते हुए मायावती ने अखिलेश का खेल बिगाड़ने की कोशिश शुरू कर दी।मोहब्बत और सियासत में कुछ हलचलें ऐसी होती हैं जो दिखती नहीं हैं। यूपी में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों मायावती में संग्राम छिड़ा है। मोहब्बत और सियासी अनुष्ठान में ना को हां भी माना जाता है। यूपी में योगी सरकार का कार्यकाल जब समाप्ति की ओर है तब बसपा सुप्रमों मायावती विपक्षी तेवरों में नज़र आ रही हैं। कहा जा रहा है कि उनका विरोध भाजपा को टॉनिक देने के लिए है।
बसपा हाशिए पर थी इसलिए भाजपा के खिलाफ वोटर एक तरफा सबसे बड़े विपक्षी दल के पाले में आ गया तो पंश्चिम बंगाल जैसे नतीजे दोहरा सकते हैं। कहा जा रहा है कि इस शंका से बसपा ने अपनी अप्रत्यक्ष दोस्त भाजपा को फायदा पंहुचाने के लिए उसका विरोध करना शुरू कर दिया। नजदीक आते यूपी विधानसभा चुनाव को देखते हुए बसपा सुप्रीमों बयानबाजी के जरिएअब विपक्षी भूमिका मे आ गईं हैं। साढ़े चार साल तक भाजपा सरकार का अप्रत्यक्ष समर्थन करने के बाद अब योगी सरकार के खिलाफ बसपा के बयान दरअसल सपा के खिलाफ लड़ाई का एक मजबूत शस्त्र हैं।
साढ़े चार साल योगी सरकार के दौरान मायावती या तो खामोश रहीं या फिर उन्होंने भाजपा के फैसलों का समर्थन करने वाली बसपा अब भाजपा के हर कदम के खिलाफ आक्रामक हो गईं हैं। धर्मांतरण या आतंकवाद के खिलाफ योगी सरकार के आपरेशन्स हों या जनसंख्या नियंत्रण कानून अथवा संघ प्रमुख मोहन भागवत का बयान.. मायावती सब के खिलाफ आक्रामक दिखीं। और उन्होंने इस धारणा को तोड़ने की भरपूर कोशिश शुरू कर दी कि सत्तारूढ़ दल से लड़ने के लिए सपा ही भाजपा के खिलाफ यूपी में लड़ने के लिए सक्षम है। इस सबसे बड़े विपक्षी दल के बाद कांग्रेस में मजबूत संगठन तक नहीं है और बसपा के बारे में लोगों की धारणा बनती जा रही थी कि बसपा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के साथ है।कहते हैं कि मरा हुआ हाथी भी सौ लाख का होता है। यूपी की सियासत में सबसे सीनियर बसपा सुप्रीमो मायावती को नजरअंदाज करना नादानी होगी। इस वक्त यूपी में दो दलों के बीच जंग में चल रही तलवारें की खनक किसी को सुनाई नहीं दे रही। लेकिन तजुर्बेकार बसपा सुप्रीमों यूपी की राजनीति में अपने अनुभव के शस्त्र अभी और भी चलाएंगी।
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