लखनऊ। प्रेमचंद का समय बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध रहा है। उनका निधन 1936 में हुआ। अर्थात करीब 8 दशक से अधिक का समय गुजर गया। लेकिन उनकी प्रासंगिकता और जरूरत प्रगतिशील और जनवादी साहित्यिक आंदोलन में हमेशा से रही है और आगे भी रहेगी।
इस वर्ष प्रेमचंद को याद करने का खास महत्व है। यह हमारी आजादी का 75 वां वर्ष है। इसे अमृत महोत्सव वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। इस संदर्भ में ‘अमृत’ की चर्चा करना आवश्यक है। कैसा है अमृत और किसके लिए है? क्या यह समाज के बहुसंख्यक श्रमजीवियों, दलितों, शोषितों, स्त्रियों, आदिवासियों अर्थात हाशिए के समाज के लिए है या यह अमृत उन मुट्ठी भर लुटेरों, दलालों, शोषकों, धनपशुओं के लिए है जिन्होंने इन 75 वर्षों में देश को लूटा, दूहा और हर आपदा का इस्तेमाल अपनी तिजोरी भरने में किया। आजादी के स्वप्न के साथ क्या हुआ?
प्रेमचंद ने भी आजादी का सपना देखा था। उनकी आजादी का मतलब ‘जान की जगह गोविंद’ को बिठाना नहीं था। उनकी आशंका निर्मूल नहीं थी। आज की हकीकत क्या यही नहीं है? स्वाधीनता संघर्ष के दौरान आजादी को लेकर कई धारणाएं थीं। बहुतों की समझ अंग्रेजों का भारत छोड़ चले जाने तक सीमित थी।
आजादी का मतलब
प्रेमचंद के सामने आजादी का अर्थ साफ और स्पष्ट था। उनकी समझ इस संदर्भ में गांधी और दूसरे से अलग भगत सिंह के करीब थी। भगत सिंह ने भी तो यही कहा था कि आजादी का मतलब गोरे अंग्रेजों से काले अंग्रेजों के हाथों में सत्ता का हस्तांतरण नहीं है। इसका एकमात्र आशय यही है कि भारत की आजादी का मतलब लुटेरों से लुटेरों के हाथों में सत्ता के हस्तांतरण की जगह भारत की उस विशाल किसान, मजदूर, शोषित उत्पीड़ित वर्गों के हाथों में वास्तविक सत्ता का होना है।
प्रेमचंद का साहित्य इसी वर्ग के संघर्ष, हर्ष-विषाद, पक्षधरता और मुक्ति-स्वप्न का अप्रतिम उदाहरण है। इसलिए आजादी के 75 वें साल में जब हम प्रेमचंद को याद करते हैं, तो उस स्वप्न के नजरिए से 75 साल के हिंदुस्तान पर हमारी नजर जाती है कि यहां जिस अमृत की बात हो रही है, वह चंद लोगों के हिस्से में क्यों रहा और समाज का बड़ा वर्ग उससे वंचित क्यों? उसके हिस्से विष तो नहीं?
सोजे वतन’ नाम
प्रेमचंद का रचनाकाल करीब तीन दशक का रहा है। उनकी शुरुआत उर्दू में कथा लेखन से हुई। 1907 में उन्होंने पहली कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ लिखी। यह उर्दू रिसाला ‘जमाना’ में छपी। इस पत्रिका में उनकी कई अन्य कहानियां भी प्रकाशित हुईं। 1909 में उनकी पांच कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ नाम से आया। ये देश प्रेम से ओतप्रोत थीं। इसे राजद्रोह मानते हुए सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। यह दौर था जब देश में बंगाल विभाजन के विरोध में आंदोलन चल रहा था। देश में आजादी की भावना आलोड़ित हो रही थी।
साहित्य की जमीन ही बदल डाली
इस घटना से दो बातें हुईं। पहली, उर्दू की जगह प्रेमचंद ने हिंदी में कहानियां लिखनी शुरू की। दूसरी, उन्हें अपना नाम बदलने को बाध्य होना पड़ा। वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। अब प्रेमचंद के नाम से हिंदी में कहानियां लिखनी शुरू की। वे उर्दू भाषा और उसके सांस्कृतिक संस्कार लेकर हिंदी में आए। उनकी कहानियां हिन्दी खड़ी बोली में थीं। एक तरफ जहां इन कहानियों की विषयवस्तु में आम जीवन खास तौर से किसान, शोषित, उत्पीड़ित वर्गों का जीवन संघर्ष व यथार्थ था, वहीं ये आमलोगों की भाषा व जुबान में थीं।
इनका पाठकों पर असर हुआ। कहानियां लोगों से जुड़ती गईं। इस तरह प्रेमचंद ने कथा साहित्य की जमीन ही बदल डाली। समाज के वे हिस्से जिन्हें हाशिए पर डाल दिया गया था, जो उपेक्षित और अवहेलित थे, उन्हें साहित्य में नायकत्व मिला। साहित्य की दुनिया में एक नए सौंदर्यशास्त्र की रचना हुई। प्रेमचंद ने उसकी कसौटी को बदलने का काम किया।
विश्व युद्ध की काली घटा
प्रेमचंद के काल और रचना संसार पर गौर किया जाए तो हम पाते हैं कि प्रेमचंद ने जब लिखना शुरू किया, उस समय पहले विश्व युद्ध की काली घटा छा रही थी। वहीं, उनका निधन ऐसे समय में हुआ जब दूसरे विश्व युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। यह दौर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दृष्टि से बहुत ही उथल-पुथल भरा था। सोवियत रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई थी। जर्मनी-इटली में फासीवादी-नाजीवादी सत्तारूढ़ हो चुके थे।
भारत में भी स्वाधीनता आंदोलन और उसकी कई धाराएं काफी सक्रिय थीं। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके साथियों के नेतृत्व में क्रांतिकारी आंदोलन अपने उठान पर था। गांधी जी स्वाधीनता आंदोलन के केंद्रीय व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठित थे। इन सब का प्रेमचंद के लेखन और उनकी वैचारिकी की निर्मिति में योगदान था। सबसे अधिक उन पर गांधी जी के विचारों का प्रभाव था।
साम्राज्यवाद को ‘विष की गांठ’ माना
प्रेमचंद के विचारों की अभिव्यक्ति उनके पात्रों के माध्यम से होती है। यह रूसी क्रांति का असर था कि वे यहां तक कहते हैं कि मैं बोल्शेविक उसूलों का कायल हूं। उन्होंने पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को ‘विष की गांठ’ माना। उनकी समझ थी कि दुनिया में अन्याय व अत्याचार, शोषण व उत्पीड़न, द्वेष व मालिन्य, अज्ञानता और मूर्खता सभी का स्रोत यही है। उन्होंने रूस की समाजवादी क्रांति में एक नई सभ्यता के उदय को देखा। ‘हंस’ के अन्तिम संपादकीय में वे लिखते हैं ‘धन्य है वह सभ्यता जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है। जल्दी या देर से दुनिया उसका अनुसरण अवश्य करेगी। …..हां, महाजनी सभ्यता और उसके गुट के लोग अपनी शक्ति भर उसका विरोध करेंगे। पर जो सत्य है एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।’
गांधीजी महान राष्ट्रनायक थे
प्रेमचंद की वैचारिकी और उनके दृष्ट बिंदु में जो परिवर्तन घटित हुआ, वह अद्भुत ही नहीं आश्चर्यजनक भी है। वे आर्य समाज के सुधार आंदोलन से प्रभावित हुए, उससे जुड़े और जैसे ही उसके सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी कार्यों का भास हुआ, जल्दी ही उनका मोहभंग हुआ।
वे उससे अलग भी हो गए। गांधीजी उनके लिए महान राष्ट्रनायक थे। उनके विचारों से वे सर्वाधिक प्रभावित थे। लेकिन जब उनकी विसंगतियां और सीमाएं उजागर हुईं, वे उसकी आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहे। उनकी साहित्यिक यात्रा समाज और जीवन में आदर्श की प्रतिष्ठा से शुरू हुई। वहीं, सामाजिक स्थितियां व जीवन संघर्ष ने उनकी रचनाशीलता को यथार्थवादी बना डाला।
भारतीय किसान के प्रति सहानुभूति
प्रश्न है के प्रेमचंद के यहां यह परिवर्तन कैसे घटित हुआ? इसके पीछे भारतीय किसान के प्रति उनकी गहरी सहानुभूति और भावनात्मक लगाव है। वे किसान जीवन के चितेरे थे। उनका हित ही प्रेमचंद का हित था। उनके विचारों में गतिशीलता व प्रगतिशीलता का यही मूल कारण था। उनके साहित्य के केंद्र में किसान, शोषित, उत्पीड़ित, दमित, स्त्रियां और दलित समाज था और इसके शोषक-उत्पीड़क उनके निशाने पर थे। इसी दृष्टिबिंदु के कारण प्रेमचंद में हम क्रमिक विकास पाते हैं। उनकी चेतना की दिशा हमेशा उर्ध्वगामी रही। आधुनिकता और प्रगतिशीलता उनके लिए जीवन मूल्य ही नहीं जीवन व्यवहार भी था।
पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात
प्रेमचंद की मान्यता थी कि न सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेश के अधीन भारत है बल्कि एक आंतरिक उपनिवेश भी है जो यहां के विशाल श्रमिक समाज को अपना गुलाम बनाए हुए है। इसीलिए जहां वे पूंजीवादी शोषण से मुक्ति की बात करते हैं, वही सामंती जकड़न, पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, सांप्रदायिकता, धर्मांधता, ईश्वरवाद जैसे पुनरुत्थनवादी विचारों से भी उनका अनवरत संघर्ष चलता रहा है। इस तरह प्रेमचंद की नजर में भारत की आजादी का आशय इस दोहरी गुलामी से मुक्ति में था।
56 में प्रेमचंद का निधन
प्रेमचंद का निधन 1936 में हुआ। उस समय उनकी उम्र मात्र 56 वर्ष थी। यह वक्त है जब वे अपनी रचनाशीलता के शीर्ष पर थे। इसी वर्ष उनका मशहूर उपन्यास ‘गोदान’ का प्रकाशन हुआ। उन्होंने ‘महाजनी सभ्यता’ जैसा महत्वपूर्ण लेख लिखा। माना जाता है कि उनका अधूरा उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ उनकी साहित्य यात्रा में एक नया मोड़ है। इस उपन्यास का मुख्य पात्र देव कहता है ‘दरिंदों से निपटने के लिए हथियार भी बांधना पड़ेगा’। यहां हमें एक नए प्रेमचंद का दर्शन होता है। उनका जाना असमय जाना रहा है।
साम्राज्यवाद परस्त पूंजीवादी विकास
हम जानते हैं कि उसके बाद का दौर आंदोलनों का दौर रहा है। तेभागा व तेलंगाना जैसे किसानों के संघर्ष हुए। देश को बंगाल के दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा। नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज का संघर्ष, नाविक विद्रोह और भारत छोड़ो जैसे आंदोलन हुए।
इन सबकी परिणति साम्राज्यवादियों से समझौते के तहत देश की आजादी के रूप में हुई। 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ। प्रश्न है कि यदि प्रेमचंद जीवित होते तो आजाद भारत में उनकी भूमिका क्या होती? हिंदी कविता में जिस भूमिका में मुक्तिबोध थे, क्या प्रेमचंद की भूमिका ऐसी और इसी तरह की नहीं होती? इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। मुक्तिबोध ने आजाद भारत के विकास को साम्राज्यवाद परस्त पूंजीवादी विकास के रूप में देखा था। वे अपनी कविता में कहते हैं:
‘साम्राज्यवादियों के/पैसे की संस्कृति/भारतीय संस्कृति में ढलकर/दिल्ली को
वाशिंगटन व लन्दन का उपनगर/बनाने पर तुली है!!
भारतीय धनतंत्री/जनतंत्री बुद्धिवादी/स्वेच्छा से उसी का कुली है!!’
प्रेमचंद ने रचना और विचार
मुक्तिबोध ने अपने जीवन काल में फासिज्म के जिस बीज का अनुभव किया था, वह आज विष वृक्ष के रूप में सामने है। यह अचानक घटित होने वाली घटना नहीं है। फासीवाद पूंजीवाद का ही सबसे निकृष्ट, बर्बर और हिंसक रूप है। वे सारे मूल्य संकट में हैं जिन्हें आजादी के संघर्ष में अर्जित किये गए। प्रेमचंद ने रचना और विचार के द्वारा इन्हें प्रतिष्ठित किया था। सारी जिन्दगी संघर्ष किया। उन्होंने लोंगों को जगाने का काम किया। उनके लिए साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल थी। प्रगतिशीलता को साहित्यकार का स्वभाव माना था। उन्होंने कहा भी कि अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है। निःसन्देह यह स्वयं के जागने और दूसरों को जगाने का वक्त है।
-कौशल किशोर
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