ईश्वरचंद्र विद्यासागर के स्मृति दिवस पर विशेष स्मरण

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लखनऊ। सन 1820 में बंगाल के मिदनापुर जिले के एक बहुत ही गरीब परिवार में *

Special remembrance on the memory day of Ishwar Chandra Vidyasagar
ईश्वर चंद्र विद्यासागर

विद्यासागर* का जन्म हुआ था। आज से 200 साल पहले बंगाल में धार्मिक अंधविश्वास, कुसंस्कार, जात-पात जैसी सोच को केंद्र कर संकीर्णता, हीन भावना, सामंती सोच आदि के प्रभाव में आम जनता पिस रही थी। अंग्रेजों का राज था और सामाजिक ढांचे में सामंती संस्कृति पूरी तरह से फैली हुई थी। जमींदारों का दबदबा चलता था। आर्थिक-सामाजिक शोषण, जुल्म और अत्याचार से आम जनजीवन बहुत ही बुरी तरह से प्रभावित था।

बंगाल में नवजागरण आंदोलन

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने भीषण गरीबी की हालत में संघर्ष करते हुए कड़ी मेहनत और लगनशीलता के साथ अपनी पढ़ाई पूरी की। वे संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में माहिर बन चुके थे। विद्यासागर से पहले बंगाल में नवजागरण आंदोलन अर्थात यूरोप के रेनेशां आंदोलन जैसी कुछ-कुछ गतिविधियां शुरू हो चुकी थी। शुरुआत हुई थी राजा राममोहन राय (1772-1833) से। उनके पहले भी कभी-कभी किसी-किसी व्यक्ति के जरिए नवजागरण की सोच विछिन्न रूप से सामाजिक जीवन में आने लगी थी। लेकिन राममोहन ने ही संशोधित-संयोजित कर एक सामाजिक आंदोलन के रूप में उसे खड़ा किया था। सामंती संस्कृति, और धार्मिक कट्टरवाद का बोलबाला रहने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी सोच धीरे-धीरे समाज में विकसित हो रही थी।

कुरीतियों के खिलाफ उनका संघर्ष

जैसे कि रात का अंधेरा पूरी तरह से अभी मिटा नहीं लेकिन आसमान की पूरब दिशा में लालिमा दिखाई दे रही है। सती प्रथा की दर्दनाक घटनाओं, जहां कितनी ही विधवा महिलाओं को जिंदा जला दिया जाता था, जैसी घृणित कुरीतियों के खिलाफ उनका संघर्ष इतिहास के पन्नों में सदा के लिए अमर हैं। राममोहन ने लॉर्ड अम्हरस्ट को 11 दिसंबर 1823 में एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने कहा था कि संस्कृत शिक्षा के बजाय गणित, रसायन-शास्त्र, भौतिकी आदि विज्ञान के विषयों को पढ़ाना चाहिए। इसके बाद भारतीय नवजागरण आंदोलन में दो महान लोगों का आविर्भाव हुआ। एक थे महाराष्ट्र में ज्योतिराव फुले। और दूसरे थे बंगाल में ईश्वर चंद्र विद्यासागर।

इकलौते बेटे  की शादी की विवाह

समाज में विधवा विवाह लागू करना विद्यासागर के जीवन का सबसे श्रेष्ठ कार्य था। इसलिए उनके इकलौते बेटे नारायण चंद्र ने जब एक विधवा से शादी की तब वे बहुत ही खुश हो गए थे। लेकिन उनके सगे भाई शंभू चंद्र ने जब पत्र लिखकर उन्हें कहा कि विधवा से शादी होने पर रिश्तेदार संबंध तोड़ लेंगे, इसलिए इस शादी को रोकना चाहिए, तब इसके जवाब में विद्यासागर ने जो कहा वह आज भी हमारे लिए एक मिसाल बनकर रह गया है। उन्होंने अपने भाई को पत्र के माध्यम से कहा कि “विधवा विवाह लागू करना हमारे जीवन का सबसे महान काम है।

विद्यासागर के संघर्ष

इस जिंदगी में इससे ज्यादा ईमानदार काम कर सकूंगा ऐसी उम्मीद कम है। इसके लिए संघर्ष करते हुए मैंने सब कुछ खो दिया है, जरूरत पड़ने पर अपनी जान भी कुर्बान कर सकता हूं। इसके मुकाबले रिश्तेदारों के साथ संबंध टूटना बहुत ही मामूली बात है। … मैं लोकाचार का मजबूर गुलाम नहीं हूं। अपने या समाज के लिए जो उचित महसूस करूंगा या जरूरत महसूस करूंगा वह निश्चित तौर पर करूंगा। लोगों या रिश्तेदारों के डर से सहमा नहीं रहूंगा।

“फिर उनके उसी बेटे ने जब अपनी पत्नी के साथ अन्याय पूर्ण आचरण किया तब उन्होंने अपने बेटे को भी नहीं बख्शा। उन्होंने उसे त्याग दिया। विधवा विवाह को लेकर उस जमाने में एक और व्यक्ति ने भी विद्यासागर के संघर्ष से प्रेरित होकर पूने में वैसा ही आंदोलन चलाया। उनका नाम था महात्मा ज्योतिराव फुले। उनके साथ उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने भी इस संघर्ष में हिस्सा लिया। उन्होंने भी महाराष्ट्र में नवजागरण आंदोलन के एक सैनिक के रूप में मानवतावादी संस्कृति को अपनाते हुए विधवा विवाह का प्रचलन, आधुनिक शिक्षा का विस्तार, स्त्री शिक्षा लागू करना, बहुविवाह प्रथा बाल विवाह प्रथा रद्द करना, ऐसे विषयों पर एक जबरदस्त सामाजिक आंदोलन छेड़ा। वे विद्यासागर के समकालीन थे।

भारत में नवजागरण

दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला हिस्सा 1815 से 1849 तक अर्थात् राजा राममोहन राय का जमाना, यंग बंगाल का जमाना, तत्वबोधिनी पत्रिका का जमाना। दूसरा हिस्सा सन 1850 से 1920 तक माना जाता है। ऐसे समय में माइकल मधुसूदन दत्त, बंकिम चंद्र, रविंद्र नाथ टैगोर, शरत चंद्र आदि साहित्यकार लोग शिक्षित जनता के दिलों दिमाग पर छाए हुए थे। हमारे देश में सामाजिक आंदोलन नवजागरण आंदोलन के रूप में धीरे-धीरे हर तरफ फैल रहा था। लेकिन राममोहन, विद्यासागर, फुले जैसे मनीषियों के मानवतावादी आंदोलन के बावजूद बंकिम चंद्र ने विद्यासागर का विरोध किया था। उन्होंने हिंदू धर्म की सनातन परंपरा की तरफदारी करते हुए विद्यासागर के विधवा विवाह प्रचलन के आंदोलन का समर्थन नहीं किया। अर्थात उस युग में विद्यासागर की तरह धर्मनिरपेक्ष वैज्ञानिक मानवतावादी सोच के समर्थक वे नहीं बन सके।

राजा राममोहन राय

उस दौरान एक और घटना का जिक्र मैं करना चाहता हूं। एक विशेष विधवा विवाह की घटना में राजा राममोहन राय के बेटे रमा प्रसाद राय पीछे हट गए थे। विद्यासागर उनके घर गए और दीवार पर राममोहन राय की तस्वीर दिखलाकर रमा प्रसाद राय से कहा कि इस तस्वीर को दीवार पर रखने का तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। उसे उतार देना चाहिए। यह कहकर विद्यासागर कमरे से निकल कर चले गए।

विद्यासागर के धर्मनिरपेक्ष मानवतावादी दृष्टिकोण का सबसे महत्वपूर्ण मिसाल है शिक्षा के संस्कार के सवाल पर उनकी महत्वपूर्ण बातें। कोलकाता में वे जब संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य थे उस दौरान शिक्षा में परिवर्तन लाने के लिए उन्होंने अंग्रेज सरकार को एक पत्र में लिखा था कि, “कुछ कारणों से संस्कृत कॉलेज में हमें वेदांत और सांख्य दर्शन पढ़ाना होता है। उसका कारण क्या है यह अभी कहने की जरूरत नहीं है। लेकिन सांख्य और वेदांत भ्रांत दर्शन हैं यह आज विवादित विषय नहीं रहा।”

वेदांत को भ्रांत दर्शन कहा था

इस तरीके से उस युग में उन्होंने सांख्य और वेदांत को भ्रांत दर्शन कहा था और विज्ञान के तमाम विषयों की पढ़ाई चालू करने के लिए सरकार से मांग की थी। इससे यह साबित होता है कि हमारे देश में नवजागरण आंदोलन के निर्माण के लिए विद्यासागर ने एक अग्रणी भूमिका निभाई थी।परंतु हमारे देश के ज्यादातर लोग विद्यासागर को इस तरीके से नहीं समझ पाते हैं। आज के समाज में भी विद्यासागर के बारे में चर्चा करना, अध्ययन करना बहुत जरूरी है।

आज देश में एक ओर सांप्रदायिकता को उकसाया जा रहा है, दंगे भड़काए जा रहे हैं, जात पात की सोच के आधार पर दलितों और गरीब शोषित जनता पर अत्याचार चलाया जा रहा है, महिलाएं निर्मम अत्याचार का शिकार बन रही हैं, पाठ्यक्रमों में दकियानूसी रूढ़िवादी सोच के आधार पर विषयों को लाने की कोशिश की जा रही है, वहीं दूसरी ओर गरीबी, भुखमरी, महंगाई, बेरोजगारी की वजह से देश की आम जनता तबाह हो रही है। आज के दिन, विद्यासागर के संघर्ष को अपनाकर हम सबको इन सभी समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाना होगा। तभी हम विद्यासागर की स्मृति में सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने के योग्य बन पाएंगे।

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