साहित्यकार एस. के. पंजम की प्रथम पुण्यतिथि पर परिसंवाद का हुआ आयोजन, वक्ताओं ने कहा -इंसानी रिश्तों की बहाली में साहित्य, कला, रंगकर्म की महत्वपूर्ण भूमिका

405
परिसंवाद को सम्बोधित करते हुए ओ. पी. सिन्हा

25 अप्रैल 2022, लखनऊ। पीपुल्स यूनिटी फोरम के तत्वावधान में जनवादी साहित्यकार, शिक्षक व सोशल एक्टविस्ट डा. एस. के. पंजम के प्रथम पुण्यतिथि पर सामाजिक सौहार्द और साहित्यकारों का दायित्व विषय पर परिसंवाद का आयोजन प्रेस क्लब में किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता भगवती सिंह व संचालन वीरेंद्र त्रिपाठी ने किया।

परिसंवाद का दृश्य, बोलते हुए साहित्यकार कौशल किशोर

डा. एस. के. पंजम का निधन 25 अप्रैल 2021 को कोरोना संक्रमण के कारण लखनऊ में हुआ था। श्री पंजम ने अपने जीवन काल में हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में 35 पुस्तकों की रचना किया है, उनकी कई कृतियां अधूरी भी रह गई है। उनकी प्रमुख रचनाओं में शूद्रों का प्राचीनतम इतिहास, उपन्यास- गदर जारी रहेगा, सन्त रैदास-जन रैदास, आत्मकथा- रक्त कमल, काव्य कृति- अधिकार, बैल और आदमी आदि प्रमुख हैं। श्री पंजम जी अमीनाबाद इंटर कालेज में अध्यापक थे। वे सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आजीवन सक्रिय रहे।

पंजम जी को श्रध्दांजलि देते हुए

वक्ताओं ने कहा कि डा. पंजम एक शिक्षक के साथ एक जिम्मेदार सामाजिक कार्यकर्ता थे और अपने साहित्यिक कृतियों से सामाजिक सौहार्द बढाने के लिए लगातार काम किया। उनकी सोच थी कि समाज जाति-धर्म के दायरे से ऊपर उठकर आपसी सौहार्द और भाईचारा बनाये।
इस अवसर पर बड़ी संख्या में नगर के बुध्दिजीवी, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित हुए। सभी ने डा. पंजम को अपनी हार्दिक श्रध्दांजलि अर्पित किया और परिसंवाद में अपने विचार रखे। वक्ताओ ने कहा कि साहित्य की विषयवस्तु लोग होते है और लोगों के बीच रिश्ता होता है। इन रिश्तों के जरिये ही हमारी पहचान होती है और हम मानवीय बनते है। उपभोक्तावादी संस्कृति ने इन रिश्तों के बीच दरार डाल दी है और हर इंसान अकेला पड़कर अपनी पहचान और भूमिका खोता जा रहा है। ऐसे माहौल में जनविरोधी राजनीति खूब फलती- फूलती है एवं सामाजिक जीवन में कटुता एवं अशांति पैदा होती है। ऐसा माहौल आज पूरे देश में दिखाई दे रहा है।
ऐसे वक्त में समाज को जोड़ने, इंसानी रिश्तों की बहाली में साहित्य, कला, रंगकर्म आदि की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। साहित्य का काम ही है लोगों के मन में इन रिश्तों के महत्व का अहसास पैदा करना और यही नहीं मनुष्य का पूरी प्रकृति के साथ रिश्ते का अहसास पैदा करना। इन रिश्तों के बिना हमारा अस्तित्व संभव ही नहीं है। इसके साथ ही साहित्य इन रिश्तों में दरार डालने वाली ताकतों की भी पहचान कराता है और उसके खिलाफ संघर्ष की दृष्टि और ऊर्जा देता है।
यह चिन्ता का विषय है कि इधर कुछ समय से साहित्यकारों की यह भूमिका थोड़ी कमजोर पड़ी है और लोगों में भी साहित्यिक रुचि कम हुई हैं। इसका नकारात्मक असर पूरे समाज पर पड़ रहा है। ऐसे समय में हमें अमर साहित्यकार प्रेमचंद को याद करते हुए यह कहना होगा कि साहित्य राजनीति के पीछे -पीछे नहीं बल्कि उसके आगे चलने वाली मशाल होती है। देश के साहित्यकारों को पुनः इस भूमिका में आना होगा ताकि इंसान और इंसानियत को बचाया जा सके और हमारा सामाजिक भाईचारा मजबूत हो।

कार्यक्रम में के. के. शुक्ला, रामकृष्ण, ओ पी सिन्हा, बृन्दा पंजम, रुप राम गौतम, कौशल किशोर, वालेन्द्र कटियार, बीएस कटियार, अजय शर्मा, ज्योति राय, अमित, विजय कुमार, एहसानुल हक, पी सी कुरील, के पी यादव, डा. टी पी राही, बी एल भारती, रमेश सिंह सेंगर, अवधेश सिंह, कल्पना पांडे, रामकिशोर,अवधेश सिंह, मन्दाकिनी, सतीश श्रीवास्तव,कमाल खान, के के वत्स,सन्तराम गुप्ता, विनोद शास्त्री, वन्दना सिंह, यादवेंद्र, विप्लव सिंह, सीमा यादव, राजाराम, महेश साहू, सहित अन्य लोग शामिल हुए।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here