ज़िन्दगी के रंगमंच से जितेंद्र मित्तल की एक्जिट

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Jitendra Mittal's exit from the theater of life
गमंच को आगे बढ़ाने में उनका योगदान लखनऊ के ऱगमंच के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा।

नवेद​ शिकोह, लखनऊ। हर यायावर की अंतिम मंजिल मौत होती है। सैंचुरी बुड्ढा तो शायद कभी नहीं मरे लेकिन ऐसे बुड्ढे की कल्पना करने वाले रंगकर्मी जितेंद्र मित्तल के जीवन की यायावरी आज खत्म हो गई। कई दिनों से वो कैंसर से पीड़ित थे। मौत से लड़ते रहे लेकिन अंत में शास्वत सत्य के आगे उन्होंने हार मान ली।जितेंद्र मित्तल, उनका यायावर रंग मंडल, सैंचुरी बुड्ढा जैसे दर्जनों कामयाब नाटकों के सैकड़ों शो, और बाल रंगमंच को आगे बढ़ाने में उनका योगदान लखनऊ के ऱगमंच के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा जाएगा।

चार दशक तक किया राज

भारतेंदु नाट्य अकादमी के पास आउट जितेंद्र मित्तल फिल्म इंडस्ट्री के अभिनेता जितेंद्र की तरह सदा बहार थे। क़रीब चार दशक तक अपनी तमाम रंगमंचीय खूबियों के बल पर छाए रहे। उन्होंने रंगमंच के स्तर का ख्याल भी रखा और रंगमंच मे ग्लेमरस रंग पैदा किए। नये दर्शकों को जोड़ा। व्यवसायिका और टिकट शो की कोशिश की। नौकरशाहों और कॉरपोरेट को रंगमंच से जोड़ने की कोशिश की ताकि मराठी रंगमंच की तरह हिन्दी रंगमंच भी व्यवसायिकता की दौड़ में आ सके। और हिन्दी के रंगकर्मियों की मुफलिसी और ग़रीबी दूर हो।

अस्सी के दशक में रंगकर्म का सफर शुरु करने वाले जितेंद्र मित्तल नब्बे के दशक में रंगम़च की दुनिया के सुपरस्टार बन गए थे।नब्बे के दशक में बाल रंगमंच पर उनकी कार्यशालाएं और बाल उत्सव आयोजनों ने रंगमंच की नई पीढ़ी तैयार की। 2000 के दशक में चर्चित नाटक सैंचुरी बुड्ढा ने धूम मचा दी। विचाराधीन कैदियों की ज़िन्दगी जेल में गुज़र जाना, और फिर उनका निर्दोष साबित होना.. इस फिक्र को जब उन्होंने नाटक का रूप दिया तो इसकी प्रशंसा भी राष्ट्रीय स्तर पर हुई।

सबके चहेते थे जितेंद्र

भारत सरकार के एजूकेशन टीवी में जब वो मुलाज़िमत कर रहे थे तब एक बड़े अधिकारी से काफी परेशान थे। मीडिया से उनका दोस्ताना रिश्ता था लेकिन उस प्रभावशाली अधिकारी का प्रभाव इतना था कि जितेन्द्र मित्तल के दर्द को कोई छापने को तैयार नहीं था। अपनी पीड़ा बयान करते हुए उन्होंने मुझे बयान दिया कि यदि ऐसे ही वो अधिकारी मुझे परेशान करता रहेगा तो मैं आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाउंगा। इसे मैंने अकेले छापा और हड़कंप मच गया।

जितेंद्र जी मित्र भी थे और शुभचिंतक भी थे पत्रकारों की तमाम समस्याओं का अक्सर अहसास करते थे। अपने घर के निजी कार्यक्रमों में न्योता ज़रूर देते थे। त्योहार पर बधाई देना भी नहीं भूलते थे। एक जमाने में यायावर का होली मिलन कार्यक्रम भी बहुत शानदार होता था। वो अच्छे लेखक थे, नाट्य निदेशक के साथ बेहतरीन अभिनेता भी थे। शायद इसीलिए उन्होंने ज़िन्दगी का किरदार बखूबी निभाया।

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