एक संत पत्रकार का जाना

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पत्रकारिता के तुलसीदास वीर विक्रम बहादुर मिश्र का स्वर्गवास

लखनऊ -नवेद शिकोह.  ल्पत्रकारिता के संत कहे जाने वाले वरिष्ठ पत्रकार वीर विक्रम बहादुर मिश्र का सोमवार को लखनऊ में निधन हो गया। 75 वर्षीय जीवन में क़रीब चार दशक से अधिक की पत्रकारिता का सफर तय करने वाले इस वयोवृद्ध पत्रकार ने सोमवार शाम पांच बजे अंतिम सांस ली। मंगलवार को लखनऊ स्थित भैंसा कुंड में इनके अंतिम संस्कार के बाद निष्ठावान पत्रकारों की बहुत छोटी सी दुनिया और भी सूनी सी लगेगी।

राजनीतिक से लेकर आध्यात्मिक रिपोर्टिंग में माहिल मिश्र जी लखनऊ की पत्रकारिता की आर्काइव वैल्यू वाली बेशकीमती और बेमिसाल किताब बनकर प्रेरणा मात्र रह जाएंगे।
मिश्रा जी, गुरु जी, पंडित जी से लेकर कोई उन्हें पत्रकारिता के गोस्वामी तुलसीदास कहता था कोई संत तो कोई भीष्म पितामह।

मासूम बच्चे जैसे प्यारे इस बुजुर्ग पत्रकार से सबको प्यार था। ख़ासकर रामभक्तों में उनसे स्नेह का विशेष कारण ये था कि इनका कलम राममय था। वो पत्रकारिता के गोस्वामी तुलसीदास थे। रामकथा से लेकर राम आंदोलन पर उन्होंने जितना लिखा शायद इतना किसी ने नहीं लिखा होगा। यही कारण था कि उनका कलम पवित्रता से लबरेज़ था।
ईमानदार और निष्ठावान पत्रकारिता की वो मिसाल थे। चार दशक से अधिक की पत्रकारिता के बदलते दौर में बहुत कुछ बदला लेकिन वो ना बदले। बदलते वक्त में बड़े-बड़े सहाफियों को व्यवसायिक और ठाठ-बाट की हवस के वायरस ने असंतुलित और दागदार कर दिया लेकिन कलम के इस बेदाग़ सिपाही ने अपने कलम के साथ कभी समझौता नहीं किया।
निश्चित तौर पर अपने पेशे के सिद्धांतों और मूल्यों के कर्तव्यों को निभाने में श्री राम की भक्ति ने इन्हें शक्ति दी होगी।
विक्रम का अर्थ है- वीरता, शक्ति, बहादुरी। मिश्रा जी वीर थे, विक्रम और बहादुर भी। मरहूम ने करीब पैतीस वर्षों से अधिक समय तक स्वतंत्र भारत अखबार में काम किया। इस अखबार को अर्श से फर्श पर आते देखा। अखबार मे बहुत सारे उतार-चढ़ाव आए। 1998 के बाद वेतन मिलने के भी लाले पड़े। हड़ताल हुई, अखबार बंदी की कगार पर आ गया। लेकिन वो डटे रहे और कच्ची गृहस्थी को ना जाने कितनी मुश्किलों से चलाया होगा।
सन 1980 से 2010 तक राष्ट्रीय सहारा, हिन्दुस्तान और ना जाने कितने बड़े-बड़े अखबार लखनऊ में शुरू हुए। थोड़ी बहुत ही राजनीतिक पकड़ रखने वाले पत्रकारों ने किसी नेता-मंत्री से सिफारिश करवाकर किसी ना किसी कॉरपोरेट मीडिया समूहों में अच्छे वेतन की सुविधाजनक नौकरी हासिल कर ली। लेकिन मिश्रा जी तो ठहरे पत्रकारिता के स़ंत वो कोई आम पत्रकार नहीं थे जो किसी बड़े राजनेता से सिफारिश करवाकर कहीं बड़ी जगह बड़ी नौकरी हासिल करके अपनी आर्थिक स्थिति सुधारते।
जबकि नारायण दत्त तिवारी, कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता, राजनाथ सिंह जैसे कई प्रभावशाली मुख्यमंत्री ही नहीं प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई तक सिर्फ जानते ही नहीं थे बल्कि उनका बहुत सम्मान करते थे। लिहाज़ा पंडित जी स्वतंत्र भारत अखबार की मुश्किलों को झेलते रहे। लम्बे मुश्किल वक्त में भी उन्होंने बच्चों को बेहतरीन शिक्षा और संस्कार दिए। एक बेटे आशीष मिश्रा को संघर्षों वाली ईमानदार पत्रकारिता की विरासत दी। आज वो देश के सबसे बड़े मीडिया ग्रुप इंडिया टुडे में उच्च पद पर रहकर भी ज़मीनी पत्रकारिता कर अपने पिता के पेशेवर संस्कारों की विरासत को आगे बढ़ा रहा है।
वीर विक्रम बहादुर मिश्र के जाने के बाद उनकी कुशल पत्रकारिता, सहनशीलता और व्यवहार कुशलता जैसी खासियतों की चर्चाओं में इस बात का सबसे अधिक जिक्र हो रहा है कि रिपोर्टिंग की दो अलग-अलग विपरीत दिशाओं में वो माहिर थे। एक राजनीतिक रिपोर्टिंग और दूसरी आध्यात्मिक। राजनीति रिपोर्टिंग में उन्होंने भाजपा बीट पर दशकों काम करते हुए भाजपा को फर्श से अर्श तक आते देखा। चालीस बरस से अधिक की पत्रकारिता के दौरान उन्हें राम जन्मभूमि आंदोलन से लेकर राम मंदिर के शिलान्यास पर लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रामकथा से राम जन्मभूमि आंदोलन और राम मंदिर निर्माण पर लिखने का सफर पूरा करते हुए ये राम भक्त अब श्री रामचन्द्र जी के श्री चरणों में चला गया।
मेरा सौभाग्य था कि मुझे भी उनके साथ काम करने का अवसर प्राप्त हुआ था। लेकिन दुर्भाग्य कि मुझमें गुरूजी से कुछ सीखने का सामर्थ्य ही नहीं था। सूरज से मोमबत्ती कैसे जलती !

मुझे याद है जब भी उन्होंने मेरी कॉपी देखी वो बोले- अरे नवेद तुम अनावश्यक शब्दों से छोटी सी बात को इतना बड़ा क्यों कर देते हो।
क्षमा कीजिएगा, ख़बर आज भी बड़ी हो गई। हांलांकि आज मेरी कोई गलती नहीं। आज छोटी खबर कैसे लिखता। आप का जाना कोई छोटी बात नहीं।
हे राम।।
– नवेद शिकोह

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