डिजिटल खा गया अख़बारों का चुनावी विज्ञापन,जो नहीं दिखा वो नहीं बिका

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The election advertisement of newspapers was eaten digital, what did not show did not sell
इस चुनाव में प्रचार के रणनीतिकारों ने जो दिखता है वो बिकता है कि तर्ज और सच्चाई पर अमल करते

लखनऊ नवेद शिकोह। बदलाव वक्त की फितरत भी है और ज़रुरत भी। लखनऊ के चौक के कोठों की तहज़ीब का ज़माना गया,आईपीएल की चेयर गर्ल का दौर शुरु हो गया। मनोरंजन का माध्यम भांड होते थे, अब कपिल शर्मा, शो जैसे तमाम कामेडी शो आपका मनोरंजन करते हैं। पहले सिर्फ अखबार और टीवी मीडिया के नाम पर दूरदर्शन होता था। फिर सेटेलाइट न्यूज़ चैनलों की बाढ़ आ गई। और अब मीडिया पर सोशल मीडिया हावी होने लगा। डिजिटल मीडिया/वेबमीडिया ने तो सोशल मीडिया को बहुत बड़ी ताकत दे दी।

इस दौरान अखबार खत्म तो नहीं हुआ और न ही होगा लेकिन परिवर्तन के दौर में अखबारों के समुद्र का पानी कम करने के लिए बदलाव का सूरज आंखें फाड़ने लगा है। छोटे अखबारों को प्राइवेट सेक्टर कभी मुंह नहीं लगाता था, सरकारें सब्सिडी या आर्थिक सहयोग की नियत से सरकारी विज्ञापन देती रही हैं। लेकिन पत्र-पत्रिकाओं की बाढ़ को लेकर सरकारों ने भी अपनी नजरें टेहढ़ी करना करना शुरु कर दी हैं। चुनाव छोटे अखबारों की भी सबसे बड़ी सहालग होते थे, पर मौजूदा चुनाव में प्रचार माध्यम के चुनाव में इस बार छोटे अखबारों को लगभग शामिल ही नहीं किया गया। इस चुनाव में प्रचार के रणनीतिकारों ने जो दिखता है वो बिकता है कि तर्ज और सच्चाई पर अमल करते।

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