लकड़ी हूं ..जल सकती हूं …

968
पेड़ कट गया, लकड़ियां मायूस थीं। एक बड़ी लकड़ी दूसरी छोटी लकड़ी को समझा रही थी- निराश मत हो, हिम्मत मत हारो। हमारा अस्तित्व ख़त्म नहीं हुआ। हम अभी भी मानव जगत की सेवा में समर्पित रहेंगे।

पेड़ कट गया, लकड़ियां मायूस थीं। एक बड़ी लकड़ी दूसरी छोटी लकड़ी को समझा रही थी। निराश मत हो, हिम्मत मत हारो। हमारा अस्तित्व ख़त्म नहीं हुआ। हम अभी भी मानव जगत की सेवा में समर्पित रहेंगे। फल, फूल, ऑक्सीजन, चारा और छाया नहीं दे सकते तो क्या, अभी भी हम लोगों के काम आते रहेंगे।

कभी बूढ़े की लाठी बनकर उसका सहारा बनेंगे। कभी कब्र में पटरे की सूरत में या चिता की लकड़ी के रूप में दाह संस्कार में अग्नि देने के काम आएंगे। ईंधन बनकर लोगों का पेट भरने में मददगार बनेंगे। फर्नीचर बन कर लोगों को आराम पहुंचाएंगे और नाव बनकर नैया पार करा सकेंगे।

बड़ी लकड़ी जब छोटी लकड़ी को ये सब समझा रही थी तो लग रहा था कि कोई बड़ी बहन अपनी छोटी बहन में हिम्मत बांध रही है..उसका हौसला बढ़ा रही है। उसे सच्चाई और हक़ीक़त से वाक़िफ करा रही हो। बड़ी लकड़ी (बड़ी बहन) की बातें सुनकर छोटी लकड़ी (छोटी बहन) बोली, सच कह रही हो दीदी,

हमें ख़ाक हो जाने तक लोगों की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त है। (इसी फ्रेम में दूसरे चरित्र भी शामिल हो गए ) इतने में सर्दी में ठुठर रहे दो गरीबों को सामने पड़ी ये लकड़ियां दिखीं। (बैक ग्राउंड साउंड एफेक्ट) दूर से गुज़र रहे चुनाव प्रचार का काफिला आवाज़ बुलंद कर रहा था- लड़की हूं, लड़ सकती हूं.. लड़की हूं, लड़ सकती हूं…

सर्दी में ठिठुरते ग़रीबों को लगा कि सामने पड़ी लकड़ियां कह रही हों- लकड़ी हूं जल सकती हूं।इन गरीबों ने लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़े करके उन्हें जला दिया।  और फिर हाथ ताप कर जानलेवा ठंड से जान बचाई।धुंआ आसमान की तरफ बढ़ रहा था और चुनाव प्रचार के काफिले के नारे मंद पड़ते जा रहे थे।

अंगारों से राख होने के सफर में भी जैसे लकड़ियां कह रही हों- लकड़ी हूं जल सकती हूं। क्योंकि हमारे में समर्पण, जज़्बे, हिम्मत, सेवा और त्याग की भावना लड़कियों जैसी है।

– नवेद शिकोह

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here