लघु कथा : हीरे का हार
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रामप्रसाद को अपने बेटे हरीराम पर पूरा भरोसा था। घर का सौदा, दुकान की जिम्मेदारी सभी कुछ वह बड़ी अच्छी तरह से संभालने लगा था। रामप्रसाद अक्सर बेटे का हिसाब किताब देखते रहते थे, सभी बहुत संतोषप्रद चल रहा था।
राम प्रसाद 15 दिन की तीर्थ यात्रा इलाहाबाद जा रहे थे। चलते-चलते उन्होंने “हीरे के हार” को बेटे से यतन से तिजोरी में रख वाया और उस पर ध्यान रखने को कहा।
15 दिन बाद लौटकर आने पर उन्होंने सबसे पहले तिजोरी में रखे हीरे के हार को बेटे से निकालकर लाने को कहा, बेटे हरीराम ने तिजोरी में रखे हीरे के हार को निकलना चाहा किंतु वह उसे वहां नहीं मिला उसका चेहरा उतर गया । लगता है उसे कोई चुरा ले गया था।
यह सुनते ही राम प्रसाद की सांस फूल गई और ,वह अचेत हो गया। बेहोशी की हालत में भी वह बड़बड़ाने लगा कि बेटा! हम बर्बाद हो गये। इतना बड़ा नुकसान तुमने पहले कभी नहीं किया अब क्या होगा?
वह “हीरे का हार”उसकी परदादी का था ।जो की परदादी ने उसकी दादी को और दादी ने उसकी मां को दिया था। और कहा था कि यह हमारा पैत्रिक हार है। इस हीरे के हार को बहुत संभाल कर रखना।
रामप्रसाद उस हीरे के हार के कारण आज भी सदमे में है और बड़बड़ाते रहते है कि हम बर्बाद हो गये यह तुमने अच्छा नहीं किया हरिराम।
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