प्रदीप पंडित, नईदिल्ली। निश्चित ही यह शीर्षक अज्ञेय जी का है, लेकिन मौजूं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर है, जिनकी ढिंढोरची घोषणाओं, नकाब पर सच लिखकर झूठ को दौड़ाते उनकी हर हरकत बेनकाब हो गई। मसला अन्ना आंदोलन का हो, आबकारी नीति का, मोहल्ला क्लीनिक का हो, अपने बंगले को राजप्रासाद में तब्दील करने का हो या स्वाति मालीवाल को पिटवाने का, इन सबमें केजरीवाल, काजरवाल साबित हुए हैं।
ऐसा कहा नहीं जा रहा, ऐसा दिल्लीवासी मानने लगे हैं। तिहाड़ से छूटते ही उन्होंने फिर एक दांव चला। कहा कि वे दो दिन बाद इस्तीफा दे देंगे यानी नया मुख्यमंत्री चुना जाएगा। उन्होंने विधानसभा भंग करने की बात नहीं की। पता होगा कि दिल्ली में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के चुनाव के साथ दिल्ली के चुनाव करा लिए जाएं।
हस्ताक्षर करने से नहीं रोका?
यह भी कहा कि मैं मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तब तक नहीं बैठूंगा जब तक मुझे दिल्ली की जनता फिर से जनादेश नहीं देती। क्या वाकई बात ऐसी ही है, जैसा अरविंद कह रहे हैं? क्या सुप्रीम कोर्ट ने उनके सचिवालय जाने पर रोक नहीं लगाई? क्या अदालत ने उन्हें फाइलों के निस्तारण पर हस्ताक्षर करने से नहीं रोका? नहीं कहा गया कि यदि अत्यंत अनिवार्य स्थिति हो तो एलजी की स्वीकृति अनिवार्य होगी। फिर इस नौटंकी का अर्थ क्या है कि मैं मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठूंगा।
यह सिर्फ इसलिए है कि उन्हें भरोसा है कि झुग्गी-झोपड़ियों के वोट उनके साथ हैं। वस्तुतः आम आदमी पार्टी का अपना कोई वोट बैंक है ही नहीं। कांग्रेस से अपनी अनसुनी से नाराज लोगों ने उन्हें समर्थन दे दिया था और यही उनका वोट बैंक बन गया। इस तरह देखें तो मंगोलपुरी यानी उत्तर-पश्चिम दिल्ली की महिलाएं मुफ्त बिजली, पानी की वजह है इनकी मुरीद हैं। मगर, पूरी दिल्ली की यह स्थिति नहीं है।
खोई नैतिकता की चादर
केजरीवाल महज वणिक पुत्र ही नहीं, उसे भलीभांति पता है कि हर चुनाव में नहीं आख्यान गढ़े बिना जीत संभव नहीं। इस बार वह अपनी खोई नैतिकता की चादर को नंगे बदन पर लपेटकर घूमने की तैयारी में है ताकि उनकी गाल बजाऊ नीति फिर से लौट सके। वह कोई और कौन होगा? यह तय हो गया है।
नए मुख्यमंत्री के चयन से उनका फैसलों पर दस्तखत करने का मसला हल हो गया है। यह संभव है लेकिन उन्हें अंततः चुनाव तो लड़ना ही होगा और इस बार का चुनाव उतना आसान नहीं होगा जितना ‘काजरीवाल’ संभव रहे हैं। वे जेल से छूटकर आए भी थे लोकसभा चुनाव के समय। दिल्ली ने बहुत दल देखे हैं। दलदल भी देखे, लेकिन उसके दुख के बदली कुछ एक समय तो छोड़कर कभी कम नहीं हुई।
एक भी सीट नहीं जीत पाई
लोकसभा चुनाव के समय भाजपा की समावेशी राष्ट्रवादी भावना ने आम आदमी पार्टी के आख्यानों को यमुना में बहा दिया। आंबेडकर नगर जैसी जगहों से जरूर उसे वोट नहीं मिले लेकिन आम आदमी पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई। उसके साथ अरविंद को यह भी समझना होगा कि कांग्रेस फिर से उरूज पर है। इस बार दिल्ली में भी हरियाणा की तरह कांग्रेस अलग लड़ेगी और यकीन मानिए वह शून्य पर नहीं होगी। उसने भी अपने आख्यानों में सीख ली है, उजाला बुनने की तरकीब, यह अलग बात है कि बुनने के उसके चरखे गोदामों में पड़े हैं और वह तकलियों से काम चला रही है।
केजरीवाल ने अपने इस्तीफे के साथ फिर एक अवसर तलाशने की कोशिश की है, जिसे उन्होंने अग्निपरीक्षा का नाम दिया है। विचारधारा के स्तर पर देखें तो वह न तो सबाल्टर्न हीरो हैं और न ही मौलिक समाजवादी। फिर भी उनकी कोशिश है कि वे जमीनी स्तर पर रैलियां करके मीडिया का ध्यान आकर्षित करें और अपने दामन पर लगे दाग को किसी तरह कम करने का प्रयास करें। ऐसा वे करेंगे भी।
53 प्रतिशत वोट पर कब्जा
वे अपने आरोपों से बरी नहीं हुए, लेकिन इस जमानत में अगले चुनाव के लिए संभावना खोजने से वे बाज नहीं आए। उनके जहन में चुनाव को लेकर नगर निगम और उसके पार्षदों के इस्तेमाल की बात है। जहां उन्हें बहुमत हासिल है। वैसे भी 53 प्रतिशत वोट पर उसका कब्जा है। मगर यह सब भी बहुत उम्मीद नहीं बंधाता, इसलिए भी कि संस्थागत और वैयक्तिक रुप से केजरीवाल का फुगावा निरर्थक सिद्ध हो चुका है।
सरकार के जरूरी फैसले अपने हिसाब से लेने के लिए अरविंद ने आतिशी को मुख्यमंत्री बना दिया। इस दरमियां बहुजन समाज पार्टी के आकाश आदि ने ट्विटर पर लिखा कि केजरीवाल ने झाड़ू चुनाव चिह्न के साथ दलितों को ठगा है। आतिशी के मामले में उनका अतिरिक्त सवर्ण प्रेम उजागर हो गया है। उनका भरोसा संजय सिंह, मनीष सिसौदिया और आतिशी पर ठहरा है। अगर वे चाहते तो किसी दलित को पद सौंप सकते थे।
झाड़ू लगाते दिखाई दे जाएंगे
कुलदीप कुमार कोंडली से विधायक हैं, उनके पिता एमसीडी में सपाई कर्मचारी हैं और आज भी सड़कों पर झाड़ू लगाते दिखाई दे जाएंगे। मंगोलपुरी की विधायक राखी बिड़लान मंत्री भी रही हैं और आज डिप्टी स्पीकर भी हैं। दलित समुदाय के राजकुमार आनंद और राजेंद्र पाल गौतम आम आदमी पार्टी छोड़ चुके हैं।
इसे समझना होगा कि दिल्ली में दलितों की आबादी करीब 17 प्रतिशत है। 15 विधानसभाएं ऐसी हैं जहां दलित जीत-हार तय करते हैं। दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 12 सीटें एससी के लिए आरक्षित रहती हैं। इसलिए केजरीवाल के लिए नतीजे हादसे की तरह भी हो सकते हैं।चुनावी नरीजे आतिशी या आतिशबाजी से संचालित नहीं होते। अब स्वाति मालीवाल ने कहा है कि यह दिल्ली के लिए बहुत दुखद दिन है। दिल्ली की मुख्यमंत्री ऐसी महिला को बनाया जा रहा कि जिनके परिवार ने आतंकवादी अफजल गुरु को फांसी से बचाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी।
आप आधार घट रहा है
अरविंद जिस नैतिकता की बात कर रहे हैं कि जनता का फैसला आने तक मैं कुर्सी पर नहीं बैठूंगा। यह बात तब मौजूं होती जब वे जेल जा रहे थे। उस समय माना भी जा सकता था कि कदाचित यह नैतिकता की ही बात होगी। फिर कोर्ट ने तो उन्हें चुनाव-प्रचार के लिए इजाजत दी थी लोकसभा के लिए।उन्होंने थोड़ी सुर्खियां भी बटोरी, लेकिन मतदाता ने उन पर रहम नहीं किया और भाजपा सभी सात सीटें जीत गई। इतना ही नहीं 2022 में पंजाब में हुकूमत में आने वाली उनकी पार्टी 13 लोकसभा सीटों में से महज तीन सीटें ही जीत पायी। जिस नगर निगम दिल्ली पर इनकी बांछें अब तक खिली हुई हैं वहां भी भाजपा से ये सिर्फ तीन प्रतिशत आगे रहे। धीरे-धीरे न केवल उनकी पार्टी का आधार घट रहा है, बल्कि अरविंद निजी आलोचना से भी खुद को बचा नहीं पार रहे। एक अंधेरा है जो चुप-चुप पसर रहा है. उनके और उनकी पार्टी के चारों ओर। मनीष सिसोदिया 17 माह जेल में बिताकर बेल आए।
अमातुल्ला खान अभी भी जेल में
उनके एक और मंत्री सतेंद्र जैन और विधायक अमातुल्ला खान अभी भी जेल में हैं। इसलिए यह निश्चित रुप से कहा जा सकता है कि अरविंद और उनकी पार्टी के लिए फिर से अपनी पुरानी छवि को पाना संभव नहीं है। इसलिए भी कि उनकी पार्टी और दिल्ली सरकार कुछ भी ऐसा नहीं कर पायी जिससे मानसून के आघात से बचा जा सके या कि गर्मियों में पानी की किल्लत से निजात मिल सके।
पूरा समय इन लोगों ने लेफ्टिनेंट गर्वनर को नीचा दिखाने उन्हें गलत सिद्ध करने और बेवजह के झगड़ों को पैदा करने में बिताया। आज वे आतिशी को बैठाकर तेजी से चाहे गए फैसले करवाना चाहते हैं। कुल जमा, आतिशी डमी मुख्यमंत्री होंगी, ताकि उन्हें थोड़ी फुर्सत मिले और वे कालिख धोने में थोड़ा साबुन-सोड़ा खर्च कर सकें।
जैसे वही पुरानी पंक्तियां हैं ‘राजा ने बोला रात हैं, रानी ने बोला रात है, मंत्री ने बोला रात है, संतरी ने बोला रात है, यह सुबह-सुबह की बात है। आतिशी इससे ज्यादा कुछ नहीं हैं, कुछ ऐसा करना उनके लिए अरविंद के सक्रिय रहते संभव भी नहीं। एनजीओ की तरह सरकारें नहीं चलतीं। मीन-मेख और दूसरे के प्रति दोषारोपण से सामाजिक न्याय असंभव है। भीगी हुई झाड़ू से सरकारी कालीन साफ नहीं किए जाते, इतना तो अरविंद को पता होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)