मुक्तिबोध स्मृति दिवस पर फासीवाद के खिलाफ एकता व प्रतिरोध का संकल्प

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Resolve for unity and resistance against fascism on Muktibodh Memorial Day
आशाओं ने आयोजित किया महाधरना

लखनऊ। मुक्तिबोध के स्मृति दिवस के अवसर पर कैसरबाग स्थित इप्टा कार्यालय में विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। इसका विषय था ‘फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध, आजादी और लोकतंत्र की संस्कृति के लिए, संदर्भ : जसम का 16 वां राष्ट्रीय सम्मेलन’ इसकी अध्यक्षता प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने की।

उनका कहना था कि आज देश में फासीवाद को लेकर कोई भ्रम नहीं है और न होना चाहिए। आजादी से हमें लोकतंत्र मिला। लोकतंत्र से अधिकार। प्रजा का नागरिक के रूप में रूपांतरण हुआ। लोकतांत्रिककरण की प्रक्रिया हमारी आजादी की देन है आज इसी को नष्ट भ्रष्ट किया जा रहा है। बहुसंख्यकवाद हावी है। ऐसे में संघर्ष जरूरी है। व्यापक एकता बुनियादी शर्त है। यह जुड़ने और जोड़ने का समय है। दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और समाज के उत्पीड़ित तबकों जिन्हें जनतंत्र में अधिकार व सम्मान मिला, वह फासीवाद से लड़ेगा। इसके सिवा कोई विकल्प नहीं है।

एकता और रणनीति बनाने में सम्मेलन

रमेश दीक्षित ने जसम के 16 वे राष्ट्रीय सम्मेलन को शुभकामनाएं दी और उम्मीद जताई कि फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध संघर्ष के दिशा में व्यापक एकता और रणनीति बनाने में सम्मेलन कामयाब होगा। गोष्ठी का संचालन जन संस्कृति मंच (जसम) के राष्ट्रीय पार्षद गीतेश सिंह ने किया।

कार्यक्रम में शिरकत करते हुए साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता

जसम उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने विषय प्रस्तुत किया, वहीं विचार गोष्ठी को सर्वश्री शिवमूर्ति, वीरेंद्र यादव, मोहम्मद शोएब, राकेश, चंद्रेश्वर, दयाशंकर राय, ओ पी सिन्हा, अजीत प्रियदर्शी, आशीष सिंह ने संबोधित किया। वक्ताओं ने मुक्तिबोध को याद करते हुए फासीवाद के बढ़ते खतरे, लोकतंत्र पर हमले, जनसमुदाय के उत्पीड़न और भगवाकरण के अनुभव पर गंभीर व विचारोत्तेजक चर्चा की तथा शिद्दत के साथ प्रतिरोध और व्यापक एकता की जरूरत को रेखांकित किया।

पूंजीवादी मॉडल का क्रिटिक प्रस्तुत किया था।

मुक्तिबोध को याद करते हुए वक्ताओं का कहना था कि वे अपने जीवन काल में भले ही उपेक्षित रहे हों, लेकिन आज सबसे जरूरी रचनाकार हैं। उन्होंने पूंजीवादी मॉडल का क्रिटिक प्रस्तुत किया था। उन्होंने पूंजीवाद के अंदर जिस फासीवाद के भ्रूण को देखा था, वह आज विष वृक्ष की तरह देश के सीने पर सवार है। मुक्तिबोध ने अपने समय की चुनौतियों का सामना किया और अँधेरे की शिनाख़्त की | वे आज भी हमारे बीच एक महत्वपूर्ण कवि-गद्यकार और आलोचक के रूप में,अपनी रचनाओं के ज़रिए दिशा दिखा रहे हैं | इस मौके पर चंद्रेश्वर और राकेश ने मुक्तिबोध की कुछ कविताएं सुनाईं जो वर्तमान समय को व्यक्त करती हैं।

कुछ वक्ताओं ने शैक्षणिक संस्थानों में भगवाकरण के अपने अनुभव को साझा किया तथा बताया कि कल जिनका संघ व एबीवीपी से कोई संबंध नहीं था, वे भी आज अपने को उससे जोड़ते हैं। लगता है कि सब पर नजर रखी जा रही है। इससे भय का वातावरण बना है। यही हालत अन्य संस्थानों में भी है। वेतन और भत्ते को लेकर इन संस्थानों में भले ही एकजुटता हो जाए लेकिन फासीवाद को लेकर यहां विरोध व प्रतिरोध की गुंजाइश नहीं के बराबर है।

कठिनाइयों के बीच रास्ता निकलता है

गोष्ठी में यह विचार भी प्रमुखता से उभर कर आया कि कोई भी समय प्रतिरोध शून्य नहीं होता। कठिनाइयों के बीच रास्ता निकलता है। नागार्जुन और अन्य कई कवियों ने अपने समय में साहित्य के ज़रिए प्रतिरोध को सामने लाने की कोशिश की है | भीमा कोरेगांव जैसी घटनाओं को आधार बनाकर के सत्ता ने दमन चक्र चला रखा है फिर भी वह संघर्षशील लोगों के मनोबल को तोड़ने में सफल नहीं हुआ है। आज भी कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का लंबा आंदोलन चला और सरकार को कानून वापस लेने पड़े | सीएए और एनसीआर के मुद्दों पर शाहीन बाग़ का आंदोलन महत्वपूर्ण रहा है | हर समय में कला-साहित्य में प्रतिरोध के नए-नए रूप सामने आते रहते हैं |

गोष्ठी में प्रेमचंद के हिन्दू-मुसलमान मुद्दे तथा वर्णाश्रमी व्यवस्था के खिलाफ सृजनात्मक व वैचारिक संघर्ष पर गौर करने की बात भी आई। वक्ताओं का कहना था कि आज समूचे देश को एक ऐसे सांस्कृतिक गैस चैंबर में बदला जा रहा है जिसमें एक व्यक्ति और एक विचारधारा को मानने से इनकार करने वालों की स्वतंत्रता खतरे में है। हमारे देश में वर्ण व्यवस्था और जाति प्रथा के कारण भेद व नफरत का भाव रहा है। वोटतंत्र ने इसे बढ़ाया है। यही फासीवाद की मुख्य जीवनी शक्ति है।

वोटतंत्र ने इसे बढ़ाया है

वक्ताओं का यह भी कहना था कि आज एक ऐसे प्रबल सांस्कृतिक व सामाजिक आंदोलन की जरूरत है जो जनसाधारण को इन घातक और बर्बर स्थितियों के प्रति जागरूक कर सके। उन्हें उनकी तकलीफों का एहसास करा सके। आज हमें बुद्ध, कबीर, अंबेडकर, मीरा, भगत सिंह, गांधी, प्रेमचंद, फ़ैज़ आदि के आदर्शों को आगे ले जाने की जरूरत है। इसी रास्ते से चलकर एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत का निर्माण संभव है।

इस अवसर पर भगवान स्वरूप कटियार, वीरेंद्र सारंग, आशीष त्रिवेदी (बलिया), अचिंत्य त्रिपाठी, आर के सिन्हा, डॉ अनीता श्रीवास्तव, कल्पना पांडे, विमल किशोर, इंदु पांडेय, कृपा वर्मा, अशोक श्रीवास्तव, आदियोग, वीरेंद्र त्रिपाठी, शिवाजी राय, राजा सिंह, अजय शर्मा, अनिल कुमार, शुभम, डा. नरेश कुमार, जाहिद अली, रामायण प्रकाश, रिजवान अली, राजेश श्रीवास्तव आदि उपस्थित थे। धन्यवाद ज्ञापन जसम लखनऊ इकाई के सह संयोजक मीडिया कर्मी मोहम्मद कलीम खान ने किया।

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