जन नाट्य आंदोलन के 85 वर्षः कल और आज -तुहिन देब

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लखनऊ। जन नाट्य आंदोलन का जनक भारतीय जन नाट्य संघ है- अंग्रजी में जिसे हम Indian Peoples Theatre Association या संक्षेप में इप्टा IPTA के नाम से जानते हैं। जन नाट्य आंदोलन की वैचारिक बुनियाद 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ ने तैयार की थी। उसी वर्ष अप्रैल माह में सम्पन्न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के ही समय प्रगतिशील लेखक संघ का प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उस सम्मेलन में कवियित्री और कांग्रेस नेत्री सरोजिनी नायडू और वामपंथी नेता मौलाना हसरत मोहानी उपस्थित थे। प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र में यह वर्णित था कि ‘‘हमारे समाज ने जो नवीन रूप धारण किया है उसे साहित्य में प्रतिष्ठित कर प्रगतिशील मानस को वेगवान करना ही हम लेखकों का कर्तव्य है। हम विश्वास करते हैं कि भारत के नवीन साहित्य को हमारे वर्तमान जीवन की मूल समस्याओं भूख, गरीबी, सामाजिक पिछड़ापन, राजनैतिक पराधीनता को लेकर जूझना पड़ेगा।‘‘

सांस्कृतिक दल का गठन

इस प्रसंग में याद रखने की जरूरत है कि 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ और कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय ही अखिल भारतीय किसान सभा (11 अप्रैल 1936) का गठन हुआ। इसके एक दिन पूर्व ही प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ था और अखिल भारत छात्र फेडरेशन AISF, का जन्म (12 अगस्त 1936) भी हुआ। जन नाट्य आंदोलन के संगठन के साथ इन सब आंदोलनों का संबंध शुरूआत से ही रहा। 1940 में बंगलौर शहर में श्रीलंका (उस समय सिंहल) के अनिल कन्या डी सिल्वा, नर्तक रामकुमार और युवा वैज्ञानिक होगी जहांगीर भाभा (ये कभी भी सामने नहीं आए) ने मिलकर पीपुल्स थियेटर के नाम से एक सांस्कृतिक दल का गठन किया था। बाद में पुलिस के द्वारा प्रताड़ित करने पर अनिल ने मुंबई आकर ख्वाजा अहमद अब्बास और अन्य साथियों के सहयोग से मजदूरों को जोड़कर पीपुल्स थियेटर बनाया था। यही नाम मई 1945 में आयोजित अखिल भारतीय सम्मेलन में भी स्वीकार किया गया।

विश्व युद्ध को टाला जाना संभव नहीं

फासिस्ट जर्मनी द्वारा आॅस्ट्रिया का अधिग्रहण करने के बाद (इस कार्य में साम्राज्यवादी ब्रिटेन तथा अमरीका का मौन समर्थन उसे प्राप्त था क्योंकि वे यह चाहते थे कि अन्ततोगत्वा ताकतवर हिटलर, स्टालिन के नेतृत्व वाले समाजवाद का सृदृढ़ किला सोवियत संघ से भीड़े), बर्टोल्ट ब्रेख्त जैसे प्रगतिशील रचनाकारों/ कलाकारों को यह महसूस होने लगा था कि अब किसी भी सूरत में विश्व युद्ध को टाला जाना संभव नहीं है। अमरीका ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी ताकतों (जिन्हें बाद में मित्र शक्ति कहा गया) के उकसाने पर फासीवादी हिटलर, मुसोलिनी व तोजो ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में करने का मसूबा बनाया। ऐसी परिस्थिति में भविष्य में जो कूछ होने वाला है, उसे बदलना उनके बूते के बाहर है यह समझकर फासीवाद विरोधी लेखक कलाकारों ने एक ओर तो अपने लेखन को गंभीर वैचारिक दर्शन की ओर मोड़ना ही सर्वोपरि समझा और पूरे मनोयोग से इसी दिशा में जुट गए।

लेखक व वामपंथी संस्कृति कर्मी

दूसरी ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फासीवाद- साम्राज्यवाद विरोधी लेखक- कलाकारों को एकजुट करने का काम शुरू किया गया। जिसके तहत् 21 से 26 अप्रेल 1935 को पेरिस में हेनरी बारबूस, रोम्या रोला के नेतृत्व में फासीवाद विरोधी लेखक – कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। जिसमें भारत से लेखक मुल्कराज आनंद तथा लेखक व वामपंथी संस्कृति कर्मी सज्जाद जहीर ने भाग लिया। 14 जुलाई 1935 को पेरिस में जन मोर्चे की ओर से एक विराट प्रदर्शन हुआ। प्रदर्शन में शामिल पांच लाख स्त्री और पुरूषों की मांग थी- मेहनतकशों को रोटी दो, काम दो, शांति दो। वे उन फासिस्ट लुटेरों को निहत्या करना चाहते थे जो सभ्यता को आतंकित कर रहे थे।

फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध

1936 में स्पेन के तानाशाह फासिस्ट जनरल फ्रैंको जिसे नाजी जर्मनी का आर्शीवाद प्राप्त था ने वहां के लोकप्रिय प्रजातांत्रिक सरकार का तख्ता पलट कर देशव्यापी जनता का बर्बर दमन कर फासीवाद कायम करने के लिए आक्रमण/गृह युद्ध शुरू किया गया। उस समय स्पेन में प्रजातांत्रिक सरकार के पक्ष में तानाशाह फ्रैंको के फासिस्ट हमले का प्रतिरोध करने के लिए अंतरराष्ट्रीय ब्रिगेड का गठन किया गया। स्पेन में फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध करते हुए ’भ्रम एवं वास्तविकता’ के लेखक व संस्कृति कर्मी क्रिस्टोफर काॅडवेल तथा प्रसिद्ध स्पेनी रचनाकार फेदेरिको गार्सिया लोर्का शहीद हो गए।

स्पेन में फासीवाद के खिलाफ प्रतिरोध में भाग लेने के लिए भारत से लेखकद्वय मुल्कराज आनंद (अंग्रेजी साहित्य) तथा सैय्यद मुजतबा अली (बांग्ला साहित्य), अंतरराष्ट्रीय ब्रिगेड में शामिल हुए। पेरिस के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के प्रभाव से लखनऊ में 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। 1936 और 1943 के बीच देश और दुनिया में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घट गईं थी। इनमें कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने के बीच नेताजी सुभाषचंद्र बोस का कंाग्रेस से बहिष्कृत होना, उनके द्वारा फाॅरवर्ड ब्लाॅक का गठन, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से कम्युनिस्टों का बहिष्कार तथा देशव्यापी साम्राज्यवाद विरोधी जन उभार उल्लेखनीय थे।

‘जनयुद्ध‘ की नीति की घोषणा

दूसरे विश्वयुद्ध में मोड़ तब आया जब हिटलर के नेतृत्व में नाज़ी जर्मनी ने 1941 में सोवियत समाजवादी गणराज्य पर हमला किया तथा सोवियत संघ, अमेरिका व ब्रिटेन को मिलाकर मित्र देशों और धुरी के देशों जर्मनी, जापान और इटली के बीच निर्णायक युद्ध छिड़ गया। इसके छः महीने बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ‘जनयुद्ध‘ की नीति की घोषणा हुई और राजनैतिक मंच की तरह सांस्कृतिक मंच पर भी अखिल भारतीय स्तर पर तत्परता शुरू हो गई। जापान के बर्मा आक्रमण के बाद चिटगांव और कलकत्ता में बमबारी तथा स्टालिनग्राद की जनता का हिटलरी फौज के खिलाफ वीरतापूर्ण संग्राम ने भारत के जनमानस को झकझोरा था।

चीन में जापान का अत्याचार और बर्मा से पलायन करने वाले भारतीयों की दुर्दशा को जानकर देश में नाज़ीवाद और फासीवाद विरोधी लेखक एवं कलाकार संघ की स्थापना हुई। जिसमें उस युग के अधिकांश लेखक एवं कलाकार जुड़े थे। 1903-08 साल के स्वदेशी युग में जनगीत के जिस विरासत की नींव पड़ी थी- उसी के आधार पर रवीन्द्रनाथ, अतुल प्रसाद, नजरूल के गीतों के साथ गांव और शहरों के युवा लेखकों के द्वारा फासीवाद विरोधी देशप्रेम के गीत, एकांकी, नाटक और कविताओं का पाठ जनसभाओं के मंच से किया जाता था।

भूखा है बंगाल

इसकंे पूर्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (¼CPI) की पहल से 1940 में कलकत्ता में यूथ कल्चरल इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई इसके तीन भाग थे- विचारगोष्ठी, नाट्य दल, नृत्य गायन दल। इसमें छात्र, मजदूर और किसानों का संगठन सक्रिय था। जापानी बमबारी के बाद ये मंच फासीवाद विरोधी सांस्कृतिक मंच बना। बंगाल के अकाल को देखते हुए अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ने पीपुल्स रिलीफ कमेटी और कल्चरल स्कवाड़ की स्थापना 1942 में की। इसने ’’भूखा है बंगाल’’ नामक नाटक देश के प्रमुख शहरों में किया। उस समय महाराष्ट्र में पवाड़ा और तमाशा पंजाब में गिद्धा और हीर, आंध्रप्रदेश में बुराकथा का अनोखा प्रयोग पहली बार जनसंघर्ष के लिए किया गया।

इसी पृष्ठ भूमि ने ’इप्टा’ को जन्म दिया। अकसर अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं पर आधारित इसी प्रकार के कार्यक्रमों का आयोजन असम, संयुक्त प्रदेश (उत्तर प्रदेश), पंजाब, मलाबार (केरल), आंध्र और बम्बई में किया जाता रहा। जिसके प्रभाव से सन् 1943 के 25 मई को बंबई में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रथम कांग्रेस (महासम्मेलन) के आयोजन के समय ही भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) की स्थापना हुई।ध्यान रखने वाली बात यह है कि प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के समय हुई थी मगर जननाट्य संघ की स्थापना, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सम्मेलन के समय पर हुई।

डाॅ. शौफतउल्ला अंसारी

संघ की प्रथम कार्यकारी समिति में सुधारवादी श्रमिक नेता एन.एम. जोशी (अध्यक्ष) के अलावा कम्युनिस्ट नेता एस.ए. डांगे, बंकिम मुखर्जी, छात्र नेता अरूण बोस, प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव सज्जाद जहीर तथा सभी प्रमुख नेतागण शामिल थे। बहरहाल पहली अखिल भारतीय कमेटी में ख्वाजा अहमद अब्बास, मामा वारेरकर तथा मनोरंजन भट्टाचार्य भी थे जो कभी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य नहीं बने। बाद के सम्मेलन की अखिल भारतीय समिति में महाकवि वालाथल, पंडित रविशंकर, अध्यापक धूर्जटिप्रसाद मुखोपाध्याय, डाॅ. शौफतउल्ला अंसारी शामिल थे। इनमें पंडित रविशंकर ने सक्रिय भागीदारी की थी।

जननाट्य संघ के रोजमर्रा के क्रियाकलापों की जिम्मेदारी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने ही ले रखी थी। ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता विनय राय ने बंगाल के जिलों में घूम-घूमकर जनगायकों का दल तैयार किया। वे अकाल-भुखमरी से पीड़ित बंगाल के लिए राहत सामग्री इकट्ठा करने के लिए पंजाब-दिल्ली-आगरा में सांस्कृतिक दल लेकर गए-इस दल में हारीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय भी शामिल थे। ‘वायस आॅफ बंगाल‘ नामक कार्यक्रम में शंम्भू मित्रा द्वारा एकांकी, नृत्य एवं गीत का प्रस्तुतिकरण भी किया गया। शंभू मित्रा तब कम्युनिस्ट नहीं बने थे। केरल में ए.के. गोपालन के समान नेतृत्वकारी कम्युनिस्ट नेता ने भी नाटकों में भाग लिया।

अतीत की प्रगतिशील धारा

कम्युनिस्ट सिद्धांतशास्त्री, डाॅ. गंगाधर अधिकारी के समान जीवन के अंतिम समय तक कम्युनिस्ट आंदोलन के दस्तावेजों के संपादन के साथ-साथ, भारत के विभिन्न आंचलिक भाषाओं के लिखे जनगीतों का संग्रहण करते रहे तथा जनता की आशा-आकांक्षाओं और संग्राम पर आधारित गीतों की रचना करते रहे।इसके पूर्व भारत के इंतिहास में कोई संगठित राजनैतिक दल ने इतनी प्रतिबद्धता के साथ समूचे देश के पैमाने पर सांस्कृतिक आंदोलन गठित करने के लिए पहल नहीं की थी। जननाट्य संघ के पहले घोषणा पत्र में कहा गया था कि ‘‘अतीत की प्रगतिशील धारा को आगे बढ़ाना है। कला की सभी विधाओं के साथ आमजनता का घनिष्ठ संबंध कायम करना है। अर्थात् मजदूर, किसान और मध्यवर्गीय जनता के बीच जो सृजनशीलता उपेक्षित है उसे सामने लाना है और इस कार्य में दर्शक या श्रोता और सृष्टा या कर्ता के बीच के फर्क को समाप्त कर समाज के बदलाव में दोनों के बीच सक्रिय संबंध स्थापित करना है। जनता के लिए है जननाट्य इस कथनी को करनी में बदलना है।‘‘

साम्राज्यवादियों की छत्रछाया

1942 से 1948 के बीच मंचस्थ नाटकों में मृच्छकटिकम्, मुद्राराक्षस, नीलदर्पण, कफन, आग, जबानबंदी, लैबोरेटरी, नवान्न (तेभागा आंदोलन का प्रसिद्ध नाटक), रक्तकरबी आदि नाटक उल्लेखनीय है। उस समय साम्राज्यवादी शक्ति के विरूद्ध सारे एशिया में जो जन-जागरण दिखाई पड़ा, उसमें भारत भी शामिल था। पूर्ण स्वाधीनता के सिवाय और कोई शर्त देश को मंजूर नहीं था और जाग्रत जनता की सतर्क दृष्टि के नीचे दोनों पक्षों के बड़े-बड़े नेताओं के बीच समझौते के दंावपेंच चल रहे थे। इस पवित्र स्वाधीनता संग्राम में आत्मबलिदान के लिए जिस तरह भारत के लाखों-करोड़ लोग कतारबद्ध हो गए थे, उसी तरह दूसरी और साम्राज्यवादियों की छत्रछाया में पलने वाले स्वार्थी महाजनों और चोर-बाजारिए, जमाखोरों के झंुड भी प्रतिक्रियावादियों के साथ हाथ मिलाकर देश की जनता का खून चूस रहे थे।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद और उसके देशीय दलालों के कुशासन और निरंकुश शोषण के अनिवार्य परिणामस्वरूप बंगाल का ग्रामीण जीवन पूरी तरह बदहाल हो गया। सारे बंगाल पर भयकर अकाल की कराल काली छाया घिर आई। ऐसे ही चरमक्षण में शहीद मातंगिनी हाजरा के क्षेत्र मेदिनीपुर जिले की पृष्ठभूमि को लेकर जन नाट्य संघ का अब तक का सबसे लोकप्रिय नाटक नवान्न (नयी फसल) लिखा गया। इसके नाटककार बिजन भट्टाचार्य (लेखिका महाश्वेता देवी के पति) जन नाट्य आंदोलन एवं बंगला साहित्य को नए आयाम देने वालों में प्रमुख रचनाकार थे।

वृद्धा पंचाननी का चरित्र

मशहूर नाटक नवान्न में परिपक्व रंगकर्मीगण- सुधी प्रधान, बिजन भट्टाचार्य, शंभू मित्र के साथ- साथ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की लोकप्रिय पूर्णकालिक नेत्री तथा 1952 में पश्चिम बंगाल में विधानसभा सदस्य रहीं मणिकुंतला सेन ने जीवन में पहली बार अभिनय किया। बिजन भट्टाचार्य तथा सुधी प्रधान ने उनसे अनुरोध किया कि नवान्न नाटक में वृद्धा पंचाननी का चरित्र जो 1942 में तमलुक मे भारत छोड़ो आंदोलन में शहीद हुई मातंगिनी हाजरा से प्रेरित है करें। यह रोल उनके सिवा और कोई नहीं कर सकता। मातंगिनी हाजरा का नाम सुनकर मणिकुंतला सेन की रूचि जागृत हुई और उन्होंने जिंदगी में पहली बार अभिनय करते हुए भी वृद्धा पंचाननी के चरित्र में जान फंूक दी। इस घटना को वर्णन करने का उद्देश्य यह है कि सांस्कृतिक आंदोलन के गहरे महत्व को उस समय के नेतृत्वकारी कम्युनिस्ट समझते थे। इसी लिए पी.सी. जोशी के द्वारा उत्साहित करने पर कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं ने सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय भूमिका निभाई।

सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय

चालीस के दशक में जन नाट्य संघ के गौरवोज्जल दिनों में सौरेन बोस के समान कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्वकारी कार्यकर्ता जो दार्जिलिंग के चायबागान के मजदूरों और आदिवासी किसानों में संगठन करते थे ने (कालान्तर में 1969 में माकपा के विभाजन से बने भा.क.पा (मा -ले) केे पाॅलिट ब्यूरो सदस्य) अपनी स्मृति में संगठन के कार्य में जनगीतों की प्रभावशीलता को बारम्बार स्मरण किया है।

मणिकुंतला सेन के पति जाॅली कौल भी सांस्कृतिक मोर्चे पर सक्रिय थे। बंगाल के लेखक काजी नजरूल इस्लाम, माणिक बंदोपाध्याय, कवि सुकांत भट्टाचार्य (मात्र 21 वर्ष की उम्र तक जिये), गुलाम कुद्दुस, सरोज दत्त, समर सेन और इनके जैसे कई साहित्यकार वामपंथी राजनीति से प्रेरित होकर शोषणकारी समाज व्यवस्था को अपनी लेखनी के साथ-साथ प्रत्यक्ष जीवन संघर्ष में भाग लेकर बदलने के लिए सचेष्ट हो गए। चालीस के दशक में हुए युगान्तकारी किसान विद्रोह- तेभागा, तेलंगाना, पुन्नप्रावायलर तथा मजदूर आंदोलनों को लोकप्रिय चित्रकार चित्तप्रसाद और बाद में सोमनाथ होड़, ने अपने जीवंत चित्रों के जरिए उकेरकर फासीवाद विरोधी महान चित्रकार पाब्लो पिकासो और सालवाडोर डाली की परम्परा को आगे बढ़ाया।

‘धरती के लाल‘‘

महान नर्तक उदयशंकर और उनके बैले स्कवाड ने भारतीय जन नाट्य संघ केतत्वावधान में नाममात्र प्रवेश शुल्क लेकर बम्बई के मजदूरों के लिए प्रदर्शन किया था। भारत के नृत्यकला के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व थी। उदयशंकर द्वारा प्रवर्तित शैडो प्ले (छाया नृत्य) का अनुकरण करते हुए जन नाट्य संघ की दिल्ली और बंगाल की शाखा ने ‘शहीद की पुकार‘ नामक बैले नृत्य का प्रदर्शन प्रत्येक जिले में किया। जननाट्य संघ के महासचिव ख्वाजा अहमद अब्बास के निर्देशन में ‘‘धरती के लाल‘‘ फिल्म बनी जिसमें बलराज साहनी, तृप्ति मित्रा व शंभू मित्रा प्रमुख भूमिका में थे। छिन्नमूल (जड़ से बेदखल) नामक फिल्म जन नाट्य संघ के अभिनेता निमाई घोष के निर्देशन में, इप्टा के ही ऋत्विक घटक, मृणाल सेन और इप्टा के विशेष समर्थक सत्यजीत राय के प्रयासों से भारतीय फिल्म जगत में जो परिवर्तन लाया गया-उससे निश्चित रूप से प्रगतिशील धारा ही गतिशील हुई है।

आकाशवाणी, फिल्म जगत, ग्रामोफोन रिकाॅर्ड और मंचीय कलाकारों के ट्रेड यूनियन गठन के पीछे भी जन नाट्य संघ के कर्मियों का प्रत्यक्ष योगदान था। इन दोनों ट्रेड यूनियनों में एकमात्र शिशिर कुमार भादुड़ी को छोड़कर बाकी सभी कलाकार और फिल्मों के तकनीकी कर्मचारी जुड़े थे। जिनमें मशहूर नायक प्रमथेश बड़ुआ और निर्देशक देवकी बोस के क्रियाकलाप करीब-करीब समाजवादी मजदूर नेताओं की तरह हो गए थे। विख्यात फिल्म निर्देशक विमल राय पांच वर्षो तक जन नाट्य संघ के अध्यक्ष रह चुके थे। विख्यात गायक और संगीत निर्देशक हेमंत मुखर्जी (कुमार) भी कार्यकारी समिति के सदस्य रह चुके थे।

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति

1945 में कलकत्ता के मुहम्मद अली पार्क में फासीवाद विरोधी लेखक व कलाकार संघ तथा जन नाट्य संघ का राज्य सम्मेलन आयोजित था। कई मामलों में यह एक ऐतिहासिक घटना थी। वह वर्ष द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति का वर्ष था। उस वर्ष ही भारत में आजाद हिंद फौज के बंदी सेनानियों की रिहाई के लिए आंदोलन, नौसेना विद्रोह, तेभागा-तेलंगाना विद्रोह, डाक-तार कर्मचारियों का आंदोलन सरीखे ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी-सामंतवाद विरोधी एक उभार पैदा हुआ था। मलाबार, आंध्र, असम, बंबई, पंजाब और उत्तरप्रदेश में लोककला से जुड़े कई कलाकार कार्यक्रम करते रहे। बम्बई के दलित वर्ग के मजदूर अण्णाभाऊ साठे, अमर शेख, गव्हाणकर, पंजाब की सुरिन्दर कौर, असम से मघाई ओझा, मलाबार के के.एस. जाॅर्ज और अम्माई, आंध्र के गोपाल कृष्णाय्या और नागभूषण जैसे कलाकार, किसान और मजदूर आंदोलन के बीच में से उभरकर सामने आए थे।

सैद्धांतिक नेतृत्व प्राप्त होता था

साठ के दशक में जन नाट्य आंदोलन की परम्परा को 1946 के नौ सेना विद्रोह की पृष्ठभूमि में उत्पल दत्त के ’कल्लोल’, ’तीर’, ’लाल लालटेन’ नाटक तथा बादल सरकार द्वारा सृजित ’अंगन मंच’ (जो बाद में नुक्कड़ नाटक के रूप में मशहूर हुआ) ने आगे बढ़ाया।कुल मिलाकर 1943 से 1962 के बीच जन नाट्य संघ ने कला और संास्कृतिक आंदोलन के लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ता तो दिए लेकिन किसान, मजदूर, छात्र मोर्चे को जिस तरह राजनैतिक या सैद्धांतिक नेतृत्व प्राप्त होता था, इस प्रकार सांस्कृतिक मोर्चे में नेतृत्व देने की कोई संगठित कोशिश नहीं हुई।

एकलक्रांति के सिद्धांत से प्रेरित था

जैसा कि प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक द्वारा सांस्कृतिक मोर्चे पर कार्य के सवाल पर भा.क.पा. केंद्रीय नेतृत्व को लिखे पत्र में भी झलकता है। 1948 में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में आए अतिवाम रूझान (बी.टी. रणदिवे लाइन) जो कि तेलंगाना कृषि क्रांति को भटकाने के लिए तथा ट्राॅटस्कीवादी जहरीले एकलक्रांति के सिद्धांत से प्रेरित था, से सांस्कृतिक मोर्चे में पहली बार विघटन हुआ। 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के बीसवें महासम्मेलन से क्रुश्चेव के नेतृत्व में माक्र्सवादी-लेनिनवाद तथा विश्व समाजवादी आंदोलन पर घातक हमलाकर वर्ग समझौतावादी संशोधनवादी पथ पर चलने की शुरूआत हुई तथा कालान्तर में सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी नवउपनिवेशवाद की पैरोकार बन गई तो दुनिया के सभी देशों की तरह भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन पर भी उसका व्यापक प्रभाव पड़ा।

कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन

बाद में 1964 में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में विभाजन से भारतीय जन नाट्य संघ में बिखराव पैदा हुआ तथा कई महत्वपूर्ण लोग जन नाट्य संघ से दूर हो गए। वैसे यह प्रक्रिया 1957 में जन नाट्य संघ के अंतिम अखिल भारतीय सम्मेलन से ही शुरू हो गई थी। और उसका कारण था भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का क्रांतिकारी आंदोलन को त्याग कर संशोधनवादी और क्रांतिविरोधी भूमिका का पालन करना। 1964 में गठित माकपा भी इसी रास्ते पर चल कर नवसंशोधनवादी हो गई तथा बंगाल, केरल व त्रिपुरा में माकपा की तीन तथाकथित वाममोर्चा सरकारों ने अपनी घोर जनविरोधी और नवउदारवादी नीतियों से वामपंथ का कबाड़ा कर दिया।

साथ ही वामपंथ के प्रति जनता में सम्मान पैदा करने की जगह इन सामाजिक जनवादियों ने वितृष्णा ही पैदा की। माकपा की पहल से स्थापित जन नाट्य मंच भी इसलिए इप्टा की गौरवमयी परंपरा का अनुसरण नहीं कर सका (सफदर हाशमी की उज्जवल भूमिका के बावजूद) तथा प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन को झंडा-बरदार न बनकर माकपा का एक प्रचार दस्ता व जेबी संगठन बनकर रह गया। पचास के दशक से जनमानस में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन के प्रभाव से चिंतित होकर शासक वर्ग ने उसी समय संगीत नाटक अकादमी का गठन किया और इस तरह जन सांस्कृतिक आंदोलन पर लगाम कसने की और जन संस्कृति की जगह पर दरबारी संस्कृति को सर्वोपरि बनाने की कोशिश शुरू हुई।

माकपा का एक प्रचार दस्ता व जेबी संगठन

जल्द ही प्रलेस और इप्टा दोनों ने अपना वर्गीय दृष्टिकोण खो दिया और मध्यमवर्गीय अवसरवादिता के प्रभाव में आ गए। 1964 में भाकपा के विभाजन के बाद माकपा की पहल से जनवादी लेखक संघ (जलेस) का गठन हुआ था। मगर माकपा के नवसंशोधनवादी अवस्थानों में पतन को अभिव्यक्त करते हुए जलेस भी आगे नहीं बढ़ सका। तब 1967 के नक्सलबाड़ी जनउभार ने सांस्कृतिक आंदोलन को एक नया आवेग प्रदान किया। अवसरवादी और सुधारवादी अधःपतन के विरूद्ध लड़ते हुए कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने जड़ जमाए प्रतिगामी सांस्कृतिक मूल्यबोधांे को चुनौती देना शुरू किया।

क्रांतिकारी उभार के साथ-साथ देश के कई भागों में सांस्कृतिक उभार भी देखा गया। हालांकि यह आंदोलन सुधारवादी रूझानों पर चोट करने में सफल रहा था और इसने सांस्कृतिक क्षेत्र में नई पहल के लिए प्रेरणा प्रदान की थी, मगर वह जल्द ही संर्कीणतावाद के प्रभाव में आकर छिन्न-भिन्न हो गया था। क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन का यह कार्यभार है कि वह इन अनुभवों का गंभीरता से मूल्यांकन करे और मौजूदा परिस्थितियों के अनुरूप सांस्कृतिक आंदोलन को आगे बढ़ाए।
जन नाट्य आंदोलन, भारत के जनवादी आंदोलन का हिस्सा रहा है।

प्रतिवादी और जनवादी सांस्कृतिक चेतना

एक वह समय था जब मनोरंजन भट्टाचार्य जन नाट्य संघ के प्रथम अध्यक्ष थे, उस समय उनके दोनों बेटे कम्युनिस्ट होने के कारण कांग्रेसी सरकार के जेल में बंद थे तथा जन नाट्य संघ करीब-करीब गैरकानूनी था या प्रतिबंधित संगठन घोषित किया गया था। यह तत्कालीन जन नाट्य संघ द्वारा शासक वर्ग की आंख की किरकिरी बनने का पुरस्कार था। और आज जब साम्राज्यवाद निर्देशित भूमंडलीकरण-उदारीकरण-निजीकरण ने मजदूर-किसान-मध्यवर्गीय समुदाय सहित आम जनता का जीना दुभर कर दिया है उस समय जनता को प्रतिवादी और जनवादी सांस्कृतिक चेतना से लैस करने की और अधिक से अधिक संख्या में प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन से जोड़ने की जरूरत है।

ऐसे समय में जब देश पर नई गुलामी का खतरा मंडरा रहा है, तब जन नाट्य संघ द्वारा कुछ जगह स्वयंसेवी संगठनों की तर्ज पर परियोजनाओं का संचालन किया गया। जब सड़े-गले सामंती और अमरीकी साम्राज्यवाद के नेतृत्ववाली साम्राज्यवादी ताकतों के निर्देश पर नव उपनिवेशिक संस्कृति के हिस्से के रूप में तथा उससे जन्मे सभी प्रकार के पतनशील काॅर्पोरेट संस्कृति के विरूद्ध सचेत रूप से जनता की जनवादी संस्कृति के लिए संघर्ष करने की जरूरत है उस समय जन नाट्य संघ द्वारा कई बार अपने लड़ाकू तेवर का परित्याग कर आयोजनधर्मिता मात्र लक्ष्य रह गया है ऐसा प्रतीत होता है।

फासीवाद और ब्राम्हणवाद का अत्याचार

जब साम्राज्यवादी ताकतों, काॅर्पोरेट ताकतों की लूट के खिलाफ हमारे सांस्कृतिक बोध को कमजोर करने के लिए उनके द्वारा प्रयुक्त शोषण, बाजार की रणनीतियों तथा गैंग संस्कृति और सौंदर्य प्रतियोगिता/सौंदर्यीकरण (रैंप संस्कृति) जैसे पतनशील साम्राज्यवादी संस्कृति के खिलाफ नौजवानों में देशभक्ति और आशावाद पैदा करने की जरूरत है, उस समय गाहे-बेगाहे एक आध नाटक का प्रदर्शन या महज नाट्य महोत्सव का आयोजन चालीस और पचास के दशक के जन नाटय संघ की क्रांतिकारी विरासत से बिल्कुल अलहदा है।

ऐसे समय पर जब संघी फासीवाद और ब्राम्हणवाद का अत्याचार चरम पर है। सम्मान के नाम पर हत्या, गौमांस के नाम पर हत्या, भीड़ द्वारा अफवाह फैलाकर हत्या (माॅबलिंचिंग), महिलाओं के खिलाफ हिंसा व यौन उत्पीड़न की घटनाएं बढ रही हों, किसानों की आत्महत्या व जल, जंगल, जमीन व आजीविका के अधिकार पर बड़े काॅर्पोरेट घरानों द्वारा सरकारी तंत्र के पूर्ण सहयोग से लगातार हमले हो रहे हों अल्पसंख्यक, दलित, आदिवासी और मेहनतकश वर्ग त्राहि-त्राहि कर रहे है, भारत के इतिहास व संस्कृति के विकृतिकरण व सांप्रदायिकरण की ताबड़तोड़ कोशिश हो रही है, तब जनता को प्रतिरोध की चेतना से लैस करना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।

मौजूदा समय में सांस्कृतिक आंदोलन

यदि हम मौजूदा सांस्कृतिक परिदृश्य और समाज के ऊपरी ढांचे के विभिन्न पहलुओं पर विहंगम दृष्टि डालते हैं, तो साफ नजर आता है कि साम्राज्यवादी सांस्कृतिक मूल्यबोध जीवन के हरेक क्षेत्र में हावी हैं। वित्तिय पूंजी, जिसका सटोरिया चरित्र दिनोदिन काॅर्पोरेट प्रभुत्व के रूप में दिनोदिन प्रबल होता जा रहा है। उसके द्वारा प्रचारित उपभोक्तावाद और अधिभौतिकवादी तमाम सांमती सड़ी-गली मान्यताएं और बाजार की बुतपरस्ती का बोलबाला है। इसके साथ-साथ सामंती ब्राम्हणवादी मूल्यबोध, आदतें, परम्पराएं, रीति-रिवाज आदि भी अब तक जीवन के साथ पहलूओं को गहरे से प्रभावित कर रही हैं। जाति व्यवस्था, धुर दक्षिणपंथी संघी फासीवादी शासन में नई परिस्थितियों से तालमेल बैठाते हुए अब भी मनुवादी बर्बर तरीकों से बनी हुई है।

नवजागरण आंदोलन और आजादी की लड़ाई

नवजागरण आंदोलन और आजादी की लड़ाई की कड़ी में जिन धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का निर्माण हुआ था, वे विलुप्त हो गए हंै और धार्मिक कट्टरपंथ, मतांधता, उन्मुक्त सांप्रदायिकता आदि सभी क्षेत्रों मे हावी होती जा रही है। दिनोदिन अंधराष्ट्रवाद और संकुचित स्थानीयता की भावना घर करते जा रही है।अल्पसंख्यकों,दलितों, आदिवासियों, उत्पीड़ितो महिलाओं पर हमले पहले से कहीं ज्यादा तेज हो गए हैं।

हमारा देश विश्व में महिलाओं के लिए सबसे ज्यादा असुरक्षित देश हो गया है। वर्तमान में भारत के इतिहास व संस्कृति का विकृतिकरण व सांप्रदायिकरण करना शासक वर्ग का प्रमुख एजेंडा है। अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन का अनुभव, जिसमें पिछली सदी के भूतपूर्व समाजवादी देशों का अनुभव भी शामिल है, हमें यह सिखाता है कि न केवल मौजूदा बर्बर सामाजिक व्यवस्था का अंत करने के लिए ही बल्कि समाजवादी रूपांतरण की दिशा में आगे बढ़ने के लिए भी, पूरी ताकत से प्रचंड और समझौताहीन संघर्ष छेड़ना होगा, अथक रूप से सिलसिलेवार सांस्कृतिक क्रांतियाँ छेड़नी होंगी।

संक्षेप में अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक आंदोलन को सभी सामन्ती और साम्राज्यवादी सांस्कृतिक मूल्यों के खिलाफ लड़ते हुए जनता के जनवादी वैज्ञानिक तथा लैंगिक समानता की संस्कृति के लिए संघर्ष करना चाहिए। इसके लिए प्रतिक्रियावादी संस्कृति, फासीवादी, अंधराष्ट्रवादी सांस्कृतिक हमले सभी प्रकार के लैंगिक भेदभाव,मनुवादी हिंदुत्व, ब्राम्हणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था अंधविश्वास धार्मिक पाखंड के खिलाफ सभी प्रगतिशील सांस्कृतिक संगठनों को मिलकर साझा सांस्कृतिक अभियान चलाना वक्त की जरूरत है।

प्रगतिशील चेतना से लैस

लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है कि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, निरक्षरता, अंधविश्वास, मनुवाद, जातिभेद, साम्प्रदायिक फासीवाद, काॅर्पोरेट लूट रूढ़िवाद और शोषण के सभी रूपों से मुक्त एक नए भारत की रचना व्यापक क्रांतिकारी प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन/सतत सांस्कृतिक क्रंाति छेड़े बिना नहीं हो सकती और जनमानस को प्रगतिशील चेतना से लैस करने के लिए जन नाट्य संघ का चालीस व पचास के दशक का गौरवमय इतिहास, जनपक्षीय कला और संस्कृति कर्मियों के लिए हमेशा संबल का काम करता रहेगा। जन नाट्य मंच में सक्रिय रहे साहिर लुधियानवी के शब्दों में ’’वो सुबह कभी तो आएगी… इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा, जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा, जब अंबर मुझ के नाचेगा, जब धरती नगमे गाएगी, वो सुबह कभी तो आएगी।

  • संदर्भ 1

  • माक्र्ससिस्ट कल्चरल मूवमंेट इन इंडियाः सुधी प्रधान (अंगे्रजी)
    2. जनजागरने नारीजागरनेः मनिकुंतला सेन (बांग्ला)
    3. युद्धजयेर गानः जलार्क प्रकाशन (बांग्ला)
    4. नुक्कड़ नाटक कैसे खेलंेः कुसुम त्रिपाठी
  • संपर्क- तुहिन देब
    फोन-09340537659, 94255-60952
    ईमेल –tuhin_dev@yahoo.com

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