खुदीराम बोस का 113वां शहीद दिवस मनाया गया, उनकी शहादत को किया याद

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113th Martyr's Day of Khudiram Bose was celebrated, his martyrdom remembered
खुदीराम बोसा सांप्रदायिक एकता के प्रतीक थे और युवाओं के लिए एक आदर्श थे।

नईदिल्ली। ऑल इंडिया किसान खेत मजदूर संगठन में आज टिकरी बॉर्डर स्थित अपने कैंप ऑफिस पिलर नंबर 786 पर महान देशभक्त, इंकलाबी योद्धा, अमर शहीद खुदीराम बोस का 113 वां शहीद दिवस बड़े आदर व श्रद्धा से मनाया। उनके फोटो पर माल्यार्पण किया तथा क्रांतिकारी सलाम किया। इस अवसर पर संगठन के प्रदेश सचिव जयकरण मांडौठी ने बताया कि 11 अगस्त 1908 को मात्र 19 साल की उम्र में इस महान देशभक्त को फांसी दी गई। फांसी से पहले उन्होंने ऊंची आवाज में “ब्रिटिश साम्राज्यवाद, मुर्दाबाद” का नारा लगाया और हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया।

जब यह मात्र 13-14 साल के थे, उन दिनों देश के लोग भूख, गरीबी, बीमारी और गुलामी से त्रस्त थे। अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर बंगाल के दो टुकड़े कर दिए थे, जिस कारण अंग्रेजो के खिलाफ लोगों के दिल में आग लगी हुई थी। देश के, विशेषकर बंगाल के नौजवान दुनिया भर के क्रांतिकारियों से सीख लेकर गुप्त संगठन बना रहे थे और अंग्रेजों पर सशस्त्र हमले कर रहे थे। उन्होंने समझ लिया था कि मात्र हाथ जोड़ने से आजादी नहीं मिलेगी। अंग्रेजो के खिलाफ लड़ना होगा और इन्हें देश से भगाना होगा।

3 दिसंबर 1889 को उनका जन्म एक छोटे से गांव हबीबपुर मोहाबनी, जिला मिदनापुर (बंगाल) में हुआ ।उनके पिता का नाम त्रिलोकीनाथ बसु, माता का नाम लक्ष्मी प्रिया देवी था ।जब वे मात्र 6 साल के थे तभी उनके माता पिता का देहांत हो गया। बड़ी बहन के घर रहने लगे। जब वह सातवीं कक्षा में पढ़ते थे तो सत्येंद्र नाथ बसु के संपर्क में आए जो उनके अध्यापक थे तथा एक क्रांतिकारी गुप्त समिति के सदस्य थे । इनका उद्देश्य सशस्त्र क्रांति द्वारा अंग्रेजी राज के चंगुल से देश को मुक्त कराना था। खुदीराम बोस बहन के घर में तरह-तरह के ताने सुनने के बावजूद भी क्रांतिकारी संगठन से दूर नहीं हुए। तरह-तरह के कष्ट झेलते हुए क्रांतिकारी गतिविधियों में लगे रहे।

फरवरी 1905 में वंदे मातरम् व सोनार बांग्ला नामक पुस्तिका बांटते हुए खुदीराम बोस को अंग्रेज पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था । 1907 में गुप्त संगठन के लिए हॉट गाछिया के डाकघर के खजाने को लूटा। 6 दिसंबर को गुप्त संगठन की जिला कान्फ्रेंस के लिए स्वयंसेवक के रूप में अहम भूमिका निभाई। इन्होने स्वदेशी आंदोलन का कोंटाई ,टालमुक, भद्रक तथा कटक जिलों में प्रोपेगेंडा किया, प्रचार, प्रसार किया और अनेक सदस्य बनाए। संगठन के आदेश पर अत्याचारी मजिस्ट्रेट् किंग्स फोर्ड जो पहले कोलकाता मैं तैनात था और क्रांतिकारियों को कठोर दंड देता था ,को मारने के लिए 17 अप्रैल 1908 को प्रफुल्ल चक्की के साथ मुजफ्फरनगर (बिहार )के लिए रवाना हुए तथा 2–3 दिन रेकी करने के बाद 30 अप्रैल को उसकी गाड़ी पर बम्ब फैंका ।

अंधेरा होने के कारण उसकी जगह दो महिलाएं उस गाड़ी में मारी गई । उन्हें इसका बड़ा पश्चाताप हुआ । कई मील पैदल चले तथा अज्ञानी भारतीयों की मुखबिरी के कारण पहली मई को पकड़े गए और 11 अगस्त 1908 को हंसते-हंसते मात्र 19 साल की आयु में फांसी के फंदे को चूम कर सदा के लिए अमर हो गए और आने वाली पीढ़ियों के लिए शोषण, उत्पीड़न- अन्याय से मुक्ति पाने का रास्ता दिखा गए। संगठन के नेता लालजी ने कहा कि वे एक सच्चे देशभक्त, ईमानदार, लगन के पक्के व चरित्रवान योद्धा थे। उनमें देश प्रेम कूट कूट कर भरा था। वे सब देशवासियों के दुख तकलीफों को अपना समझते थे। वे सांप्रदायिक एकता के प्रतीक थे और युवाओं के लिए एक आदर्श थे।

हमारे देश में विदेशी लुटेरों से तो 1947 में निजात पा ली किंतु खुदीराम बोस और उन जैसे हजारों शहीदों के सुनहले खुशहाल व शोषण- उत्पीड़न से मुक्त जनजीवन के सपने अभी तक सपने ही बने हुए हैं, देश से शोषण, उत्पीड़न तथा दमन खत्म नहीं हुआ है। आइए उनसे प्रेरणा लें ।इस अवसर पर जयकरण मांडौठी, लालजी, सरदार बख्शीश सिंह, सुरजीत सिंह खालसा, प्रदीप सिंह तथा अन्य साथी उपस्थित रहे।

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